आर्य समाज: वैदिक धर्म का पुनरुत्थान और सामाजिक क्रांति का प्रतीक
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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। आर्य समाज भारतीय इतिहास में एक ऐसा धार्मिक-सामाजिक आंदोलन है जिसने 19वीं शताब्दी के नवजागरण काल में हिंदू धर्म की मूल भावना को पुनर्जीवित करने का अभियान चलाया। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित यह संस्था न केवल वेदों के प्रचार-प्रसार पर केंद्रित रही, बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के लिए भी संघर्षरत रही। आज भी आर्य समाज के सिद्धांत भारतीय समाज को एकता, समानता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।
आर्य समाज की नींव रखने वाले महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के मोरवी (वर्तमान राजकोट जिला) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम मूलशंकर तिवारी था। बचपन से ही वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे, किंतु शिवरात्रि की रात्रि में मंदिर में चूहे द्वारा शिवलिंग पर चढ़ते देखे हुए दृश्य ने उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति संदेह पैदा कर दिया। इसके पश्चात् उन्होंने गहन अध्ययन आरंभ किया और 1845 में घर त्याग दिया। नर्मदा तट पर स्वामी पूर्णानंद से संन्यास दीक्षा प्राप्त करने के बाद वे दयानंद सरस्वती कहलाए। मथुरा में प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानंद से वेदों का ज्ञान प्राप्त कर उन्होंने ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा दिया। दयानंद जी ने हिंदू धर्म में व्याप्त अंधविश्वासों, मूर्तिपूजा, अवतारवाद तथा जातिवाद का खंडन किया। उनकी प्रमुख रचनाएँ ‘सत्यार्थ प्रकाश’, ‘ऋग्वेद भाष्य’, ‘यजुर्वेद भाष्य’ तथा ‘गोकरुणानिधि’ हैं, जो वैदिक सिद्धांतों का प्रामाणिक प्रतिपादन करती हैं। दयानंद सरस्वती का निधन 30 अक्टूबर 1883 को जोधपुर में विषपान से हुआ, किंतु उनके विचार आज भी जीवंत हैं।
आर्य समाज की औपचारिक स्थापना 10 अप्रैल 1875 (चैत्र शुक्ल पंचमी, विक्रम संवत् 1932) को मुंबई (तत्कालीन बंबई) के गिरगांव में हुई। इससे पूर्व, 1872 में बिहार के आरा में एक प्रारंभिक प्रयास किया गया था, किंतु मुंबई में ही इसे संगठित रूप प्रदान किया गया। दयानंद सरस्वती ने स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से यह संस्था स्थापित की, जिसका मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना तथा हिंदू समाज को पाश्चात्य प्रभावों से मुक्त करना था। स्थापना के समय 28 नियम अपनाए गए, जिन्हें बाद में लाहौर (1877) में संक्षिप्त कर 10 नियमों में बदल दिया गया। ये नियम आज भी आर्य समाज का आधार हैं। आर्य समाज की स्थापना का पृष्ठभूमि ब्रिटिश कालीन भारत का धार्मिक-सामाजिक संकट था, जहाँ मिशनरी प्रचार से हिंदू धर्मांतरण बढ़ रहा था। दयानंद जी ने इसे रोकने के लिए ‘शुद्धिकरण’ की अवधारणा प्रस्तुत की। आज 2025 में आर्य समाज अपनी 150वीं वर्षगांठ मना रहा है, जो इसके दीर्घायु का प्रमाण है।
आर्य समाज के 10 नियम उसके सिद्धांतों का सार हैं। प्रथम नियम ईश्वर की सर्वव्यापकता और निराकारता पर जोर देता है, जबकि द्वितीय नियम वेदों को सर्वोच्च ज्ञान का स्रोत मानता है। तृतीय नियम धर्म के सार्वभौमिकता पर बल देता है। नैतिक नियमों में सत्य, स्वाध्याय, ब्रह्मचर्य तथा परोपकार प्रमुख हैं। आर्य समाज का आदर्श वाक्य ‘कृण्वन्तो विश्व आर्यम्’ (विश्व को आर्य बनाओ) है, जो वैश्विक एकता का संदेश देता है। यह संस्था कर्म सिद्धांत, पुनर्जन्म तथा यज्ञों की वैज्ञानिकता में विश्वास रखती है। दयानंद सरस्वती ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में इन सिद्धांतों का विस्तार किया, जो ब्रिटिश साम्राज्य को भी चुनौती देता था। ये सिद्धांत न केवल धार्मिक हैं, बल्कि सामाजिक समानता, स्त्री-शिक्षा तथा राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देते हैं। आर्य समाज ने हिंदू धर्म को रूढ़िवादी कर्मकांडों से मुक्त कर वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।
आर्य समाज ने सामाजिक सुधार के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य किए। बाल विवाह, सती प्रथा, बहुविवाह, छुआछूत तथा जातिवाद जैसी कुरीतियों का कड़ा विरोध किया गया। स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार देकर लिंग समानता की नींव रखी। शुद्धि आंदोलन के माध्यम से ईसाई तथा इस्लाम धर्मांतरित हिंदुओं को पुनः वैदिक धर्म में लाया गया, जिससे लाखों लोगों का उद्धार हुआ। शिक्षा के क्षेत्र में डीएवी (दयानंद एंग्लो वैदिक) संस्थान तथा गुरुकुल कांगड़ी जैसे संस्थानों की स्थापना की, जो आधुनिक विज्ञान के साथ वैदिक ज्ञान का समन्वय करते हैं। राजनीतिक रूप से, आर्य समाज ने स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित किया; इसके सदस्यों ने क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लिया। गोरक्षा आंदोलन को ‘गोकरुणानिधि’ पुस्तक से बल प्रदान किया। साहित्यिक योगदान में हिंदी भाषा का प्रचार प्रमुख है, जिससे हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा मिला। ये कार्य आज भी प्रासंगिक हैं, विशेषकर महिला सशक्तिकरण तथा पर्यावरण संरक्षण में।
आर्य समाज के प्रमुख सदस्यों ने इसके विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लाला लाजपत राय, जिन्हें ‘पंजाब केसरी’ कहा जाता है, ने राजनीतिक जागरण में योगदान दिया तथा डीएवी कॉलेज की स्थापना की। स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आंदोलन को गति दी और गुरुकुल कांगड़ी की नींव रखी। पंडित लेख राम आर्य समाज के प्रचारक थे, जिन्होंने दयानंद जी की हत्या के बाद संगठन को मजबूत किया। अन्य प्रमुख सदस्यों में पंडित गुरुदत्त विद्यालंकार जो वैज्ञानिक दृष्टि से वेदों की व्याख्या करते थे, तथा लाला हंसराज शामिल हैं, जिन्होंने लाहौर में डीएवी संस्थान स्थापित किया। महिलाओं में सावित्रीबाई फुले जैसी प्रेरणा प्राप्त करने वालीं कई आर्यिका कार्यकर्ता सक्रिय रहीं। इन सदस्यों ने न केवल भारत, बल्कि विश्व स्तर पर आर्य समाज का प्रसार किया, जिसमें फिजी, दक्षिण अफ्रीका तथा अमेरिका के आर्य समाज शामिल हैं। इनके बलिदान ने आर्य समाज को एक वैश्विक आंदोलन बना दिया।
आर्य समाज का प्रभाव बहुआयामी रहा। धार्मिक रूप से, इसने हिंदू समाज को एकीकृत किया तथा वेदों को पुनः प्रतिष्ठित किया। सामाजिक रूप से, जाति-प्रथा तथा स्त्री-शोषण के विरुद्ध संघर्ष ने आधुनिक भारत की नींव रखी। शैक्षणिक संस्थानों के माध्यम से लाखों युवाओं को वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान की, जो स्वतंत्र भारत के विकास में सहायक सिद्ध हुए। राजनीतिक रूप से, आर्य समाज ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा क्रांतिकारी आंदोलनों को प्रेरित किया, वेलेन्टाइन चिरोल ने दयानंद जी को ‘भारतीय अशांति का जन्मदाता’ कहा। आज भी आर्य समाज के 5000 से अधिक मंदिर तथा शाखाएँ विश्व भर में सक्रिय हैं। हरियाणा, पंजाब तथा उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इसका विशेष प्रभाव है, जहाँ सामाजिक जागरण के केंद्र बने हैं। हालांकि, गुरुकुल बनाम डीएवी जैसे विचार-भेद उत्पन्न हुए, किंतु इस विविधता ने ही इसे गतिशील बनाया।
आर्य समाज को स्थापना के प्रारंभिक काल में रूढ़िवादी हिंदुओं तथा मिशनरियों से कड़ा विरोध झेलना पड़ा। दयानंद जी पर कई बार प्राणघातक हमले हुए। विभाजन के बाद लाहौर से दिल्ली स्थानांतरण ने संगठन को प्रभावित किया। फिर भी, आर्य समाज ने अनुकूलन क्षमता दिखाई। वर्तमान में, डिजिटल युग में यह ऑनलाइन प्रवचनों तथा सोशल मीडिया के माध्यम से वेद प्रचार कर रहा है। 150वीं वर्षगांठ (2025) पर भव्य समारोह आयोजित हो रहे हैं, जो इसके प्रासंगिकता को दर्शाते हैं। चुनौतियाँ जैसे धर्मनिरपेक्षता का दुरुपयोग तथा युवाओं का आकर्षण कम होना बनी हुई हैं, किंतु वैदिक विज्ञान के माध्यम से इन्हें संबोधित किया जा रहा है।
आर्य समाज महर्षि दयानंद सरस्वती के दर्शन का जीवंत स्वरूप है, जो वेदों की ज्योति से समाज को आलोकित करता है। इसकी स्थापना से लेकर आज तक के कार्यों ने भारत को एक प्रगतिशील राष्ट्र बनाया। प्रमुख सदस्यों के बलिदान तथा सिद्धांतों की अमरता ने इसे अमर बना दिया। आने वाले समय में, आर्य समाज को वैश्विक चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन तथा सांस्कृतिक संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभानी होगी। अंततः, ‘कृण्वन्तो विश्व आर्यम्’ का संदेश ही विश्व शांति का आधार बनेगा। आर्य समाज न केवल एक संस्था है, बल्कि एक जीवन दर्शन है जो हर भारतीय को गौरवान्वित करता है।
आर्य समाज केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह शैक्षणिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार का सशक्त आंदोलन था। महर्षि दयानंद सरस्वती और स्वामी श्रद्धानंद ने समाज को अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और सामाजिक कुरीतियों से मुक्त करने का प्रयास किया। आर्य समाज ने शिक्षा, महिलाओं के अधिकार, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
आज भी आर्य समाज का संदेश प्रासंगिक है “ज्ञान, धर्म और नैतिकता के माध्यम से समाज सुधार संभव है।” यह आंदोलन हमें सिखाता है कि शिक्षा, धार्मिक जागरूकता और समाज सेवा के माध्यम से ही समाज में सच्चे बदलाव लाए जा सकते हैं।
