जब वेदों से निकला स्वास्थ्य का विज्ञान, जानिए आयुर्वेद का चमत्कारी रहस्य।

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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। भारतीय संस्कृति में शरीर को केवल मांस और हड्डियों का ढांचा नहीं माना गया है। शास्त्रों में कहा गया है “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” अर्थात यह शरीर ही सभी धर्मों और कर्तव्यों की पूर्ति का साधन है।

मनुष्य तभी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष  इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति कर सकता है, जब उसका शरीर स्वस्थ, संयमित और संतुलित हो। यदि शरीर दुर्बल या अस्वस्थ हो जाए, तो साधना, सेवा, अध्ययन, या कर्म सब असंभव हो जाते हैं। इसलिए हमारे ऋषियों ने शरीर की पवित्रता और स्वास्थ्य को ही जीवन का प्रथम धर्म बताया है।

आयुर्वेद जीवन का विज्ञान – 
“आयुर्वेद” शब्द दो संस्कृत शब्दों से मिलकर बना है आयु अर्थात जीवन और वेद अर्थात ज्ञान। अर्थात् आयुर्वेद का अर्थ हुआ “जीवन का विज्ञान” या “जीवन जीने की कला।” यह केवल चिकित्सा प्रणाली नहीं, बल्कि जीवन को संतुलित ढंग से जीने का शास्त्र है। आयुर्वेद का उद्भव हजारों वर्ष पूर्व हुआ, जब आधुनिक चिकित्सा का नामोनिशान भी नहीं था। उस काल में ऋषियों ने ध्यान, अनुभव और तपस्या के माध्यम से मनुष्य के शरीर, मन और प्रकृति के बीच गहरे संबंधों का रहस्य समझा।

त्रिदोष सिद्धांत, आयुर्वेद का आधार – 
आयुर्वेद कहता है कि शरीर का संपूर्ण स्वास्थ्य “त्रिदोष” के संतुलन पर निर्भर करता है वात, पित्त और कफ। इन तीनों के संतुलन से शरीर स्वस्थ रहता है और इनके असंतुलन से रोग उत्पन्न होते हैं।
1️⃣ वात दोष – वायु और आकाश तत्त्व से बना है। यह शरीर में गति, संचार, सृजन और उत्साह का नियामक है।
2️⃣ पित्त दोष – अग्नि और जल तत्व से निर्मित। यह पाचन, चयापचय (metabolism), दृष्टि और बुद्धि का संचालन करता है।
3️⃣ कफ दोष – पृथ्वी और जल तत्व से युक्त। यह स्थिरता, चिकनाई, पोषण और शरीर की संरचना को बनाए रखता है।

जब यह त्रिदोष संतुलन में रहते हैं, तो व्यक्ति प्रसन्न, ऊर्जावान और निरोग रहता है; और जब इनमें असंतुलन आता है, तो वही स्थिति “रोग” कहलाती है।

आयुर्वेद केवल लक्षण देखकर दवा नहीं देता। यह व्यक्ति की शारीरिक संरचना (प्रकृति), मानसिक अवस्था (मनःस्थिति) और जीवनशैली (दिनचर्या) तीनों का अध्ययन कर निदान करता है। प्राचीन काल में वैद्य नाड़ी परीक्षण, नेत्र निरीक्षण, जिह्वा और त्वचा परीक्षण द्वारा रोग का कारण जान लेते थे। आयुर्वेद का यह दृष्टिकोण केवल “बीमारी को ठीक करने” का नहीं, बल्कि रोग होने से पहले उसकी रोकथाम का है।

आयुर्वेद कहता है “आहार ही सर्वश्रेष्ठ औषधि है।”अर्थात हम जो खाते हैं, वही हमारे स्वास्थ्य का आधार है। यदि भोजन पवित्र, सात्विक और उचित समय पर लिया जाए, तो रोग स्वतः दूर रहते हैं। आयुर्वेद भोजन को केवल पेट भरने का साधन नहीं मानता, बल्कि भोजन को ईश्वर की अर्पणा समझता है। क्योंकि कहा गया है कि भगवान “वैश्वानर” रूप में प्रत्येक प्राणी के पेट में स्थित हैं और अन्न को पचाकर शरीर को पोषण देते हैं। इसलिए भोजन से पहले प्रार्थना और संयम  यही आयुर्वेद का प्रथम नियम है।

आयुर्वेद का उद्भव – आयुर्वेद की जड़ें स्वयं वेदों में निहित हैं। सनातन परमेश्वर ने जब मानव कल्याण के लिए चार वेदों को प्रकट किया ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद तो इन्हीं से आयुर्वेद का उद्भव हुआ। अथर्ववेद को चिकित्सा का मूल वेद माना गया है। कहा जाता है कि प्रजापति ने सबसे पहले आयुर्वेद का संकलन किया और इसे भगवान सूर्य को सौंपा। सूर्यदेव ने इसे आगे भगवान धन्वंतरि को प्रदान किया, जो भगवान विष्णु के 24वें अवतार माने गए हैं। धन्वंतरि ने ही इस ज्ञान को “संहिता रूप” में संगठित किया और अपने शिष्यों काशीराज दिवोदास, अश्विनीकुमार, च्यवन, चरक और सुश्रुत के माध्यम से जनसाधारण तक पहुँचाया।

भगवान धन्वंतरि को वैद्यक का जनक कहा जाता है। उन्होंने “चिकित्सा तत्वविज्ञान” नामक मूल ग्रंथ की रचना की। काशीराज ने चिकित्सा कौमुदी, अश्विनीकुमारों ने चिकित्सा सारतंत्र, और च्यवन ऋषि ने जीवदान तंत्र लिखा। इनसे प्रेरित होकर आगे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग हृदय जैसे ग्रंथ बने, जो आज भी चिकित्सा विज्ञान की आधारशिला हैं। आयुर्वेद के 16 प्रमुख तंत्रों में प्रत्येक में रोग, निदान, औषधि, आहार और जीवन शैली के विस्तारपूर्वक सिद्धांत बताए गए हैं।

रोग और दोष, कारण और समाधान – 
आयुर्वेद के अनुसार जब कोई व्यक्ति अनुचित आहार-विहार, असंयम या मानसिक तनाव में पड़ता है, तो उसके शरीर के दोष असंतुलित हो जाते हैं। वात, पित्त और कफ के प्रकोप से शरीर की प्राकृतिक लय टूट जाती है।
1. भूख के समय भोजन न करना पित्त प्रकोप का कारण है।
2. अत्यधिक भोजन या स्नान के बाद भोजन कफ वृद्धि करता है।
3. चिंता, कलह, भय और असंतोष वात दोष को बढ़ाते हैं।
इन असंतुलनों से ही शारीरिक और मानसिक रोग जन्म लेते हैं। आयुर्वेद इन दोषों को संतुलित कर व्यक्ति को “मूल” से स्वस्थ करता है, न कि केवल लक्षणों को दबाकर।

आयुर्वेद केवल चिकित्सा नहीं, शरीर की उपासना भी है। यह कहता है कि शरीर एक देवमंदिर है, जिसमें परमात्मा निवास करते हैं। यदि मंदिर अपवित्र हो जाए, तो पूजा संभव नहीं होती। इसी प्रकार यदि शरीर रोगी हो, तो साधना, सेवा, अध्ययन सब निष्फल हो जाते हैं। इसलिए शरीर की स्वच्छता, संयम और शुद्धता को धर्म का हिस्सा माना गया है। भोजन, नींद, विचार और आचरण इन चारों में संतुलन ही स्वास्थ्य का परम रहस्य है।

आधुनिक चिकित्सा बनाम आयुर्वेद – 
आधुनिक चिकित्सा जहां रासायनिक औषधियों पर निर्भर है, वहीं आयुर्वेद प्रकृति पर आधारित है। एलोपैथिक दवाएँ त्वरित असर तो देती हैं, लेकिन उनके दुष्प्रभाव (side effects) कभी-कभी शरीर को दीर्घकालिक हानि पहुँचाते हैं। इसके विपरीत, आयुर्वेदिक औषधियाँ धीरे-धीरे, लेकिन स्थायी लाभ देती हैं। वे शरीर को उसकी “मूल स्थिति” में लौटाने का कार्य करती हैं। कहा भी गया है “अल्पफलमपि हि हानिरहितं श्रेष्ठम्।” अर्थात कम लाभदायक किंतु हानिरहित उपाय सर्वोत्तम है।

आयुर्वेद केवल रोग-मुक्ति नहीं, बल्कि संतुलित जीवन का शास्त्र है। यह व्यक्ति को यह सिखाता है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य में कैसे जिया जाए।
1. नियमित दिनचर्या (दिनचर्या): सूर्योदय से पूर्व उठना, व्यायाम, स्नान और ध्यान।
2. ऋतुचर्या: ऋतुओं के अनुसार आहार-विहार में परिवर्तन।
3. सात्विक आहार: ताजे, हल्के और शुद्ध अन्न का सेवन।
4. योग और ध्यान: मन की शांति और आत्मसंयम के लिए।
5. स्नेह और दान: मानसिक संतुलन और सामाजिक समरसता के लिए।

आधुनिक अनुसंधान और आयुर्वेद की स्वीकार्यता – 
आज आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि आयुर्वेदिक जीवनशैली हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा और तनाव जैसी जीवनशैली-जन्य बीमारियों को नियंत्रित करने में सक्षम है। अध्ययनों में पाया गया है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा इम्यूनिटी बढ़ाती है, हार्मोनल संतुलन बनाए रखती है और मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत करती है।

योग, ध्यान, प्राणायाम और आयुर्वेद ये चारों मिलकर शरीर, मन और आत्मा तीनों की एकीकृत चिकित्सा प्रणाली बनाते हैं। आयुर्वेद केवल जड़ी-बूटियों का संग्रह नहीं, बल्कि जीवन को समझने और संतुलित करने की प्राचीनतम विद्या है। यह हमें सिखाता है कि स्वास्थ्य केवल रोग-मुक्ति नहीं, बल्कि शरीर, मन और आत्मा का सामंजस्य है।

इस प्राचीन विज्ञान को अपनाकर हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत रख सकते हैं। आयुर्वेद न केवल चिकित्सा है, बल्कि जीवन दर्शन है जो हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का मार्ग दिखाता है। दोषों के संतुलन से हम रोगों से मुक्त होकर पूर्ण जीवन जी सकते हैं। यह पद्धति हमें याद दिलाती है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव है। आयुर्वेद के ग्रंथ और विद्वान हमें अनगिनत उपाय प्रदान करते हैं। इनका अध्ययन और अनुपालन आज के व्यस्त जीवन में भी सरल है। ताजा भोजन, संयमित दिनचर्या और प्राकृतिक चिकित्सा से हम वृद्धावस्था को दूर रख सकते हैं। भगवान धन्वंतरि का यह वरदान मानवता के लिए अमूल्य है।

अंत में, आयुर्वेद हमें सिखाता है कि रोग निवारण से अधिक रोकथाम महत्वपूर्ण है। संयम, शुद्ध आहार और योग से हम अपने शरीर को मंदिर बना सकते हैं। यह ज्ञान न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए, बल्कि समग्र मानव जाति के कल्याण के लिए आवश्यक है। 

जब शरीर स्वस्थ हो, मन शांत हो और आत्मा प्रसन्न तभी जीवन पूर्ण कहा जा सकता है। आयुर्वेद इसी समग्र दृष्टिकोण का नाम है  जो हमें सिखाता है कि जीवन को केवल जीना नहीं, बल्कि संतुलित और जागरूक होकर अनुभव करना ही सच्चा स्वास्थ्य है।

आयुर्वेद केवल चिकित्सा नहीं, बल्कि एक संस्कृति है  जो हमें याद दिलाती है कि शरीर ही साधन है, और उसका संतुलन ही जीवन और उसका धर्म है। अतः आज के इस वातावरण में आवश्यक है कि हम सब आयुर्वेद को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर सनातन परंपरा की रक्षा करें और स्वस्थ भविष्य का निर्माण करें।

Samvad 24 Office
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