बिहार की जनता ने जातिवाद को नकार दिया, या कहानी कुछ और है?

Share your love

संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का परिणाम केवल सत्ता परिवर्तन का घटना-क्रम नहीं है, बल्कि यह राज्य की राजनीतिक संस्कृति में एक गहरे बदलाव का संकेत भी देता है। दशकों से जातीय समीकरणों पर आधारित राजनीति के लिए प्रसिद्ध बिहार में इस बार जनता ने जिस प्रकार मतदान किया, वह नई सोच, नए दृष्टिकोण और बदलते राजनीतिक मानस का प्रतीक बनकर उभरा है।

यह चुनाव एक बड़ा सवाल खड़ा करता है, क्या सचमुच बिहार की जनता जातिवाद से ऊपर उठ चुकी है? और अगर हाँ, तो क्या यह चुनाव उन नेताओं के लिए सीख है जो हर चुनाव को जातीय बंटवारे की जमीन पर लड़ते रहे हैं? चलिए इस प्रश्न को राजनीतिक, सामाजिक और चुनावी विश्लेषण के साथ समझते हैं।

जातीय गणित से आगे बढ़ता बिहार: जनादेश में नई दिशा
बिहार की राजनीति लंबे समय से जातीय ध्रुवीकरण पर टिकी रही है। यादव, कुर्मी, कुशवाहा, दलित, महादलित, मुस्लिम इन वर्गों की राजनीतिक निष्ठा अक्सर तय मानी जाती थी। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में मतदाताओं के रुझान ने इस पुरानी धारणाओं को जोरदार चुनौती दी।

अगर मतदान प्रतिशत, एग्जिट पोल और अंतिम परिणामों की प्रवृत्तियों को देखें तो स्पष्ट है कि इस बार मतदाताओं ने उम्मीदवार की जाति से ज्यादा उसकी विश्वसनीयता, विकास एजेंडा और कानून-व्यवस्था को प्राथमिकता दी।

मतदाता अब यह नहीं पूछ रहे हैं कि “आप किस जाति के हैं?” नहीं, बल्कि ये पूंछ रहे हैं कि “आपने हमारे क्षेत्र के लिए क्या किया है?” यह बदलाव छोटे शहरों और कस्बों से लेकर गांवों तक स्पष्ट दिखा।

क्यों कमजोर पड़ रही है जातिवादी राजनीति?
1 जागरूकता और शिक्षा के विस्तार से मतदाताओं में बदलाव
पिछले दस वर्षों में बिहार में शिक्षा का स्तर और जागरूकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। तकनीक और सोशल मीडिया ने युवा मतदाताओं को जातिवादी बहसों से हटकर वास्तविक मुद्दों की तरफ आकर्षित किया है।

2 विकास आधारित राजनीति का मजबूत होना
सड़कें, रोजगार, बिजली, स्वास्थ्य सुविधाएँ, डिजिटल सुविधाएँ इन मुद्दों ने इस बार चुनाव के केंद्र में जगह बनाई। पहली बार गांवों में भी यह चर्चा थी कि कौन सा नेता विकास के प्रति अधिक प्रतिबद्ध है।

3 युवाओं की निर्णायक भूमिका
बिहार की युवा आबादी सबसे तेजी से बदल रही है। उनकी आकांक्षाएं जाति से नहीं, अवसरों से जुड़ी हैं। युवा अब जातीय बंधनों में बंधी राजनीति को पुरातन मानते हैं और आधुनिक नेतृत्व की तलाश में हैं।

4 पुराने जातीय प्रभुत्व वाला नैरेटिव कमजोर पड़ा
जो पार्टियाँ केवल जातीय वोट बटोरने की रणनीति पर चुनाव लड़ती थीं, उनके प्रदर्शन में इस बार गिरावट साफ दिखाई दी। नेताओं का पारंपरिक ‘MY समीकरण’, ‘EBC समीकरण’ या ‘XYZ जाति का वोट बैंक’ वाला गणित अब उतना कारगर दिखाई नहीं दिया।

क्या जनता ने जातिवाद को नकार दिया? या फिर यह “मिश्रित जनादेश” है?
यह कहना भी पूरी सत्यता नहीं होगी कि जातिवाद पूरी तरह समाप्त हो गया है। बिहार की सामाजिक संरचना में जाति की भूमिका अभी भी महत्त्वपूर्ण है। लेकिन इस चुनाव ने यह जरूर साबित कर दिया कि अब केवल जाति के भरोसे चुनाव नहीं जीते जा सकते।

जनता ने तीन स्पष्ट संदेश दिए –

  1. जाति का प्रभाव है, लेकिन निर्णायक नहीं है।
  2. नेता का काम और ईमानदारी अधिक महत्वपूर्ण है।
  3. विकास और सुशासन ही भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेंगे।

नेताओं के लिए सबक: अब जाति नहीं, परफॉर्मेंस देखेगा बिहार
मोदी–नीतीश–तेजस्वी की तिकड़ी के दौर में राजनीतिक प्रतिस्पर्धा तो रही, लेकिन जनता ने साफ कर दिया कि अब ‘विकास नहीं तो वोट नहीं’। जो नेता सिर्फ जातीय रैलियां कर रहे थे, जो केवल जाति आधारित नारे लगा रहे थे, वे इस बार पिछड़ गए। इसके कारण नेताओं और पार्टियों को अब अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा।

यह चुनाव तीन बड़ी सीखें देता है ये

  1. नेतृत्व विश्वसनीय हो, तभी जातीय समर्थन स्थायी रहता है।
  2. विकास और सुरक्षा की राजनीति अब मजबूती से पैर पसार चुकी है।
  3. युवा अब जातिवादी राजनीति को पिछड़ेपन का प्रतीक मानता है।

किस तरह बदला राजनीतिक नैरेटिव?
पहले:
जाति कार्ड
समीकरण
सामुदायिक ध्रुवीकरण
भय और भ्रम

अब:
रोजगार
सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा
भ्रष्टाचार विरोध
तकनीक आधारित प्रशासन
पारदर्शिता

जनता जिस नेता को विश्वसनीय मानती है, वहीं जातीय सीमाओं से बाहर जाकर उसे वोट देने को तैयार है।

2025 चुनाव से उभरे कुछ अहम ट्रेंड

  1. फ्लोटिंग वोटर्स की संख्या बढ़ी
    पहले जाति तय करती थी कि किसे वोट देना है। अब 18-40 आयु वर्ग का बड़ा हिस्सा उम्मीदवार और पार्टी का मूल्यांकन करता है, फिर मतदान करता है।
  2. महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण
    महिला मतदाताओं ने बार-बार साबित किया है कि वे विकास और सुरक्षा पर वोट करती हैं, न कि जाति पर। 2025 में यह भूमिका और अधिक सशक्त दिखी।
  3. स्थानीय मुद्दों की ओर बड़ा झुकाव
    प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में स्थानीय समस्याएँ पेयजल, सड़क, अस्पताल, स्कूल मुख्य चर्चा का विषय बनीं। यह प्रवृत्ति बताती है कि जनता अब ठोस काम चाहती है।

क्या यह स्थायी बदलाव है?
यह कहना जल्दबाजी होगी कि जातिवादी राजनीति पूरी तरह समाप्त हो गई है। लेकिन यह बदलाव स्थायी जरूर है कि अब केवल जाति का सहारा लेकर चुनाव नहीं जीते जा सकते।

राजनीतिक दलों को अब काम करना होगा, रिपोर्ट कार्ड दिखाना होगा और पारदर्शी राजनीति अपनानी होगी अन्यथा मतदाता उन्हें नकारने में देर नहीं करेंगे।

भविष्य की राजनीति का संकेत: विकास बनाम जाति
2025 का चुनाव यह स्पष्ट करता है कि बिहार अब विकास आधारित राजनीति की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। इसका अर्थ यह भी है कि
भ्रष्टाचार
जातीय नफरत
नकारात्मक राजनीति
अब जनता के लिए स्वीकार्य नहीं होगी। जितनी तेजी से जनता का मानस बदल रहा है, उतनी ही तेजी से पार्टियों को भी अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।

बिहार का नया जनादेश, काम करो, जाति छोड़ो
2025 का चुनाव बिहार के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ की तरह देखा जाएगा। जनता ने इस बार यह संदेश जोरदार तरीके से दिया है कि अब बिहार जाति पर नहीं, काम पर वोट करेगा।

यह चुनाव जातिवादी राजनीति करने वाले उन नेताओं और दलों के लिए भी स्पष्ट संदेश है कि
जाति के नाम पर जहर न फैलाएँ,
विकास की राजनीति करें,
सुशासन को प्राथमिकता दें।

क्योंकि बिहार की जनता अब बदल चुकी है, और इस बदलाव को कोई भी नेता नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। बिहार का यह चुनाव सच में जातिवादी राजनीति को आइना दिखा गया है।

Samvad 24 Office
Samvad 24 Office

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Get regular updates on your mail from Samvad 24 News