मुस्लिम वोट बैंक में भूचाल, कांग्रेस-आरजेडी से भरोसा क्यों टूट रहा है? AIMIM ने कैसे बनाई अपनी पकड़?”
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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)।
बिहार के विधानसभा चुनावों ने राज्य की राजनीति और विधानसभा समीकरण में एक नया मोड़ ला दिया है जहां पुरानी धारणाएँ धँसती नजर आ रही हैं, और नए पैंतरे उभर रहे हैं।
कांग्रेस का बुरा प्रदर्शन: क्या हुआ?
2025 के बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का परिमाण बहुत निराशाजनक रहा है। मतदान के परिणामों के मुताबिक कांग्रेस ने महज 6 सीटें जीतीं एवं वोट शेयर लगभग 8.7 % रहा। इसके पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का बेहतर-नहीं पर अपेक्षाकृत आश्वस्त प्रदर्शन था, लेकिन इस बार उसका पायदान काफी नीचे आ गया। विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस राज्य में अपने पारंपरिक आधार को खोती जा रही है विशेषकर मुस्लिम-वोट बैंक को। तथ्यों में देखें तो कांग्रेस ने 61 प्रतिष्ठित सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन उनमें से केवल 6 में बढ़त बनाई, इसके मुकाबले, AIMIM ने सीमांचल में पांच सीटें जीत लीं।
कांग्रेस की कमजोरी में निम्न कारक शामिल माने जा सकते हैं:
- राज्य में जाति-ध्रुवीकरण, सामाजिक समीकरणों में बदलती प्रवृत्तियों के बीच कांग्रेस ने समय पर खुद को सुदृढ़ नहीं किया।
- मुस्लिम वोटर्स के बीच कांग्रेस अब “डिफॉल्ट” विकल्प नहीं रहा, उन्हें विकल्प मिल रहा है।
- विपक्षियों द्वारा “वोट चोरी” या मतदाता सूची विवाद जैसे बिंदुओं को मुख्य बनाने का प्रयास असफल सिद्ध हुआ, क्योंकि इन मुद्दों ने व्यापक अपील नहीं बनाई।
इस तरह, कांग्रेस अपने आप को, विशेषकर बिहार में एक कमजोर विकल्प के रूप में पा रही है, क्योंकि मुस्लिम-वोट बैंक और अन्य समूह अब उसकी ओर पूरी तरह से नहीं देख रहे।
मुस्लिम वोटरों में बेचैनी: क्यों बदल रही प्राथमिकता?
मुस्लिम वोटर्स को अब राज्य-राजनीति में अलग तरह से चलते हुए देखा जा रहा है। पारंपरिक दृष्टिकोण यह था कि मुस्लिम मतदाता RJD संयुक्त गठबंधन के प्रति भरोसा करते थे, पर 2025 में इस ट्रेंड में अहम बदलाव दिखाई दे रहे हैं।
(i) सीमांचल का मोड़
विशेष रूप से बिहार के सीमांचल क्षेत्र (जैसे Kishanganj, Araria, Katihar) में मुस्लिम जनसंख्या काफी अधिक है किशनगंज में तकरीबन 68 % मुस्लिम हैं। इस इलाके में मुस्लिम वोटर्स ने इस बार नए विकल्पों पर विचार किया। एक निष्कर्ष यह है कि मुस्लिम-बहुल सीटों पर अब वोट बैंक बड़ी सहजता से नहीं बँट रहा, बल्कि समुदाय रणनीतिक होकर निर्णय ले रहा है।
(ii) RJD-संयुक्त गठबंधन में विश्वास की दर में कमी
RJD लंबे समय से ‘मुस्लिम-यादव’ (MY) समीकरण पर भरोसा करती रही है। लेकिन इस बार के चुनाव में उस समीकरण को दरार लगी। उदाहरण के लिए, मुस्लिम-वोट बैंक ने RJD में यह देखा कि वे प्रतिनिधित्व की दृष्टि से अपेक्षित नहीं कर पाए हैं। “मुस्लिम समुदाय RJD से नाराज है, क्योंकि गठबंधन ने उपमुख्यमंत्री पद के लिए किसी मुस्लिम को नामित नहीं किया” ऐसे संकेत हैं कि मुस्लिम मतदाताओं का धैर्य कम हुआ है, ‘बस वोट बैंक समझकर लिया जाना’ पर्याप्त नहीं रहा।
(iii) “उनका अपना” विकल्प: AIMIM
उसके विपरीत, AIMIM ने मुस्लिम-बहुल इलाकों में सक्रिय होकर यह दावा किया कि “यह हमारा संघर्ष है, हमारी पार्टी है” रुझान बताते हैं कि मुस्लिम वोटर्स अब सिर्फ पारंपरिक विकल्प पर भरोसा नहीं कर रहे, बल्कि ‘प्रत्येक वोट के पीछे एक स्पष्ट विकल्प’ खोज रहे हैं।
मुस्लिम वोटर्स में इस तरह की तीन-चार प्रवृत्तियाँ दिख रही हैं:
(a) अब वोट पैकेज नहीं, बल्कि ‘प्रतिनिधित्व’और ‘सशक्तिकरण’ देख रहे हैं।
(b) अपने समुदाय के भीतर बदलाव चाह रहे हैं सिर्फ वोट देना नहीं, बल्कि नेतृत्व एवं भागीदारी की भी इच्छा है।
(c) क्षेत्रीय दलों से निराश हैं, यदि प्रतीकात्मक ही हों।
(d) चुनौतियों को महसूस कर रहे हैं विकास, अवसर, पहचान जिनमें उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं।
AIMIM का उभार और मुस्लिम-वोट बैंक में उसकी भूमिका
AIMIM ने इस चुनाव में सीमांचल में पाँच सीटें जीतीं। यह संख्या, हालांकि सीटों की कुल संख्या में बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन संकेत देती है कि मुस्लिम वोटर्स ‘तीसरा विकल्प’ तलाश रहे हैं।
(i) क्यों AIMIM?
AIMIM ने यह संदेश दिया कि मुस्लिम समुदाय को सिर्फ वोट बैंक नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें नेतृत्व में स्थान मिलना चाहिए। सीमांचल जैसे पिछड़े, विकास-वंचित इलाकों में AIMIM ने खुद को ‘विकास की ओर से आवाज’ के रूप में पेश किया। मुस्लिम युवा मतदाताओं में AIMIM का आकर्षण बढ़ा है, क्योंकि वह ‘नई राजनीति’, ‘अपनी आवाज’ की बात कर रहा है।
(ii) इसका प्रभाव
मुस्लिम-बहुल हिस्सों में AIMIM ने RJD को परेशानी में डाला है। मुस्लिम वोट बँटने की संभावना बढ़ी है। RJD एवं कांग्रेस जैसे दलों को इस बात का सामना करना पड़ा कि मुस्लिम वोटर्स अब सिर्फ उनके साथ नहीं हैं या सिर्फ सहयोगी खेमों में भरोसा नहीं कर रहे। जबकि AIMIM की सीट संख्या सीमित है, उसकी प्रभाव-स्थिति भविष्य के लिए संकेत है कि मुस्लिम-वोट बैंक में स्थिरता मुश्किल है और दलों को अपनी रणनीति बदलने की आवश्यकता है।
RJD और अन्य क्षेत्रीय दलों में मुस्लिम विश्वास क्यों घटा?
जहाँ AIMIM की ओर कुछ मुस्लिम-वोटर्स झुक रहे हैं, वहीं पारंपरिक क्षेत्रीय दलों जैसे RJD में भरोसा क्यों कम हुआ? इसके पीछे कई कारण हैं:
- RJD ने पिछले दशकों में मुस्लिम-यादव गठबंधन पर भरोसा किया, लेकिन इस बार यह समीकरण कमजोर नजर आया। उदाहरण के लिए, मुस्लिम प्रतिनिधित्व की संभावना रेखांकित रही।
- मुस्लिम वोट बैंक अब सिर्फ जातिगत समीकरण-पर आधारित नहीं, बल्कि मुद्दों-पर आधारित हो रहा है ‘विकास’, ‘रोजगार’, ‘मानव-अधिकार’। RJD ने इस बदलाव का समय पर सही तरीके से जवाब नहीं दिया।
- क्षेत्रीय दलों में नेतृत्व-धारणा (leadership) एवं निष्पादन (delivery) को लेकर निराशा है। मुस्लिम-वोटर्स कह रहे हैं कि अब सिर्फ आवाज बुलंद करना पर्याप्त नहीं है, परिणाम भी चाहिए।
- गठबंधन-राजनीति में मुस्लिम-वोटर्स को ‘वारंटेड सीट’ या ‘जरूर मिलेगा’ जैसी भावना नहीं रही। उन्होंने देखा कि वे वोट देते हैं, लेकिन उन्हें स्वायत्त निर्णय व नेतृत्व नहीं मिलता।
कांग्रेस-वोट बैंक और मुस्लिम वोटर्स: लिंक क्यों टूटा?
यदि कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत कमजोर रहा है और मुस्लिम-वोटर्स अब अन्य विकल्प देख रहे हैं, तो इस टूटने के पीछे क्या कारण हैं?
कांग्रेस ने स्वायत्त रूप से अपनी स्थिति तय नहीं की उस पर यह भरोसा था कि मुस्लिम वोट बैंक उसे स्वाभाविक रूप से मिलेगा, लेकिन इस सोच में बदलाव आ गया।
मुस्लिम वोटर्स ने यह देखा कि कांग्रेस पिछले कई वर्षों से पर्याप्त फोकस नहीं दे रही थी या बदलाव का केंद्र नहीं थी। कांग्रेस की चुनावी रणनीति में मुस्लिम-वोटर्स के लिए ‘अपना नेतृत्व’ प्रस्तुत करने की कमी रही। वहीं AIMIM ने इसे मौके के रूप में लिया।
सामाजिक-आर्थिक मुद्दे जैसे गरीबी, शिक्षा, रोजगार, अल्पसंख्यक उत्थान जिन पर मुस्लिम-वोटर्स की अपेक्षाएँ थीं कांग्रेस उन मुद्दों को पर्याप्त प्रभावी ढंग से उठाने में विफल रही।
इसी बीच, मुस्लिम-वोट बैंक का पुरानी पार्टियों के प्रति भरोसा क्षीण हुआ और वे नए विकल्पों की ओर देखने लगे।
आगे का परिदृश्य
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजनीतिक समीकरण अब पुराने-साफ्ट फैशनेबल समीकरणों (जैसे जाति-गठबंधन, वोट बैंक आधारित राजनीति) तक सीमित नहीं रह गए हैं। विशेषकर मुस्लिम-वोटर्स के लिए अब निम्नलिखित बातें भी अहम हो गयी हैं –
प्रतिनिधित्व-क्या उन्हें सिर्फ वोटर के रूप में देखा जा रहा है या नेता/निर्णायक की तरह?
सशक्तिकरण-क्या उनकी भागीदारी बढ़ी है या सिर्फ वोट देने तक सीमित?
परिणाम-मुखी राजनीति-क्या उनके लिए विकास, अवसर, समानता नजर आ रही है या सिर्फ भाषण-सहमति?
नए विकल्पों का उदय-जहाँ वे महसूस करते हैं कि पुरानी पार्टियाँ उनकी आवाज को पर्याप्त तवज्जो नहीं देतीं, वहां वे नए-छोटे विकल्पों की ओर देख रहे हैं, जैसे AIMIM
इस सबका मतलब यह है कि कांग्रेस सहित अन्य पुराने दलों को अपने आप को पुनर्स्थापित करना होगा, सिर्फ वोट बैंक पर निर्भर नहीं रह सकते, बल्कि नए-सशक्त नेतृत्व, नीति-उन्मुखी रणनीति और अल्पसंख्यक-वोटर्स को सक्रिय भागीदार बनाने की ओर कदम बढ़ाना होगा।
मुस्लिम-वोटर्स ने यह संकेत दिया है कि वे अब सिर्फ “हमारी पार्टी” के भरोसे नहीं चलेंगे उन्हें यह देखना है कि उनकी आवाज, उनकी भागीदारी, उनकी गरिमा राजनीति में कैसे प्रतिबिंबित हो रही है। यदि किसी दल ने इस दिशा में विशुद्ध काम नहीं किया, तो उसे अपना आधार खोने का जोखिम है।
आगे देखने की बात यह है कि क्या AIMIM इस स्तर पर और विस्तार कर पाएगी, और क्या कांग्रेस/RJD जैसी पार्टियाँ इस बदलाव को पहचानकर रणनीति बदलेंगी। बिहार का यह परिणाम न सिर्फ राज्य-मंच पर बल्कि राष्ट्रीय-स्तर पर अल्पसंख्यक राजनीति की दिशा और स्वरूप को प्रभावित करेगा।



