रोजगार संकट या अवसर का युग? जानिए भारत की बेरोजगारी के बदलते चेहरे और समाधान।
Share your love

संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। बेरोजगारी केवल एक आर्थिक समस्या नहीं है, यह सामाजिक स्थिरता, विकास दर और नागरिक जीवन के आत्मसम्मान से भी जुड़ी हुई चुनौती भी है। जब कोई व्यक्ति अपनी योग्यता, क्षमता और मेहनत के बावजूद ऐसा कार्य नहीं प्राप्त कर पाता जिससे वह सम्मानपूर्वक जीवन-यापन कर सके, तो यह स्थिति “बेरोजगारी” कहलाती है। यह किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण सूचक है, जो उसके विकास, जनकल्याण और नीतियों की प्रभावशीलता को मापता है।
आज भारत जैसे विशाल और जनसंख्या-बहुल देश में बेरोजगारी एक जटिल समस्या बन चुकी है। सरकारें लगातार रोजगार सृजन के प्रयास कर रही हैं, लेकिन इसके स्वरूप, कारण और प्रभावों की गहराई समझे बिना समाधान संभव नहीं है।
बेरोजगारी का कोई एक रूप नहीं होता। अर्थशास्त्रियों ने इसे परिस्थितियों और कारणों के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया है :-
1. संरचनात्मक बेरोजगारी (Structural Unemployment)
जब श्रमिकों के कौशल और उद्योगों की मांग के बीच असमानता होती है, तब यह बेरोजगारी जन्म लेती है। तकनीकी प्रगति, स्वचालन (Automation), और औद्योगिक संरचना में बदलाव इस प्रकार की बेरोजगारी के मुख्य कारण हैं। उदाहरण के लिए- जब किसी क्षेत्र में मशीनें मानव श्रम की जगह ले लेती हैं, तब कई लोग बेरोजगार हो जाते हैं।
2. मौसमी बेरोजगारी (Seasonal Unemployment)
यह बेरोजगारी कृषि और अन्य मौसमी उद्योगों से जुड़ी होती है।
जैसे किसान केवल फसल के मौसम में ही काम पाते हैं, बाकी समय उन्हें वैकल्पिक रोजगार नहीं मिलता।
3. चक्रवर्ती या चक्रीय बेरोजगारी (Cyclical Unemployment)
यह बेरोजगारी आर्थिक मंदी के दौरान होती है, जब कंपनियां उत्पादन घटा देती हैं और कर्मचारियों को निकाल देती हैं।
वैश्विक मंदी (recession) के समय इसका प्रभाव सबसे अधिक दिखता है।
4. अप्रत्यक्ष या आंशिक बेरोजगारी (Underemployment)
यह तब होती है जब व्यक्ति अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार पूरा काम नहीं कर पा रहा होता, या उसे ऐसा काम मिलता है जिसमें उसका कौशल पूरी तरह उपयोग नहीं हो पाता।
भारत में बेरोजगारी के कई प्रमुख कारण है –
1. तेजी से बढ़ती जनसंख्या –
भारत की जनसंख्या वृद्धि दर रोजगार सृजन की गति से कहीं अधिक है। सरकारी नीतियाँ और निजी क्षेत्र दोनों मिलकर भी उस अनुपात में रोजगार उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। परिणामस्वरूप, लाखों युवा हर वर्ष रोजगार बाजार में प्रवेश करते हैं, लेकिन अवसर सीमित हैं।
2. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल की कमी
भारत की शिक्षा प्रणाली अब भी रोजगार-केंद्रित नहीं है।
तकनीकी, व्यावसायिक और प्रायोगिक प्रशिक्षण का अभाव युवाओं को उद्योगों की आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार नहीं कर पाता।
3. सरकारी नीतियों की जटिलता और धीमी अर्थव्यवस्था
कभी-कभी आर्थिक नीतियाँ, कर व्यवस्था या प्रशासनिक अड़चनें उद्योगों के विकास को धीमा कर देती हैं। जिससे निजी क्षेत्र में नौकरियों की रफ्तार कम हो जाती है।
4. तकनीकी उन्नति और ऑटोमेशन
मशीनों और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के बढ़ते प्रयोग ने कई पारंपरिक नौकरियों को समाप्त कर दिया है। जहाँ पहले 10 लोग काम करते थे, अब एक मशीन वही कार्य कर रही है।
अतीत में रोजगार की स्थिति, जब बेरोजगारी का कोई नाम नहीं था – यदि हम इतिहास की ओर लौटें, तो पाते हैं कि भारत के प्राचीन और मध्यकालीन समाज में बेरोजगारी का स्वरूप बिल्कुल अलग था। उस समय की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से कृषि, हस्तशिल्प, व्यापार और पारंपरिक व्यवसायों पर आधारित थी। परिवारिक परंपराओं से पेशे तय होते थे कुम्हार का बेटा कुम्हार, सुनार का बेटा सुनार, और किसान का बेटा किसान बनता था। इस व्यवस्था में कुछ खामियाँ अवश्य थीं, लेकिन उस समय “बेरोजगारी” जैसी स्थिति लगभग नहीं थी क्योंकि हर व्यक्ति किसी न किसी कार्य में संलग्न था।
ब्रिटिश काल: जब बेरोजगारी ने संगठित रूप लिया –
भारत में वास्तविकता में “बेरोजगारी” का जन्म ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ। औपनिवेशिक नीतियों ने भारतीय कुटीर उद्योगों को नष्ट कर दिया। हस्तशिल्प, बुनाई, ताना-बाना, और धातु उद्योग जैसे पारंपरिक क्षेत्र बर्बाद हो गए। कृषि पर अत्यधिक कर और दोहन ने किसानों की स्थिति बदतर बना दी। ब्रिटिश शासन की औद्योगिक नीतियों का उद्देश्य भारतीय उत्पादन नहीं, बल्कि ब्रिटिश उद्योगों के लिए बाज़ार तैयार करना था। इससे करोड़ों भारतीय पारंपरिक रोजगार खोकर गरीबी और बेरोजगारी के दलदल में फंस गए।
स्वतंत्रता के बाद का दौर: औद्योगिकीकरण से रोजगार की खोज – 1947 के बाद भारत ने “स्वावलंबन” और “औद्योगिकीकरण” को विकास का मार्ग माना। पंडित नेहरू की नीतियों में भारी उद्योग, सार्वजनिक क्षेत्र और बुनियादी ढांचे का निर्माण प्राथमिकता में था। फिर भी, बेरोजगारी पूरी तरह खत्म नहीं हुई। 1960 और 70 के दशक में हरित क्रांति आई, जिसने कृषि उत्पादन बढ़ाया, लेकिन यह केवल पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित रही। ग्रामीण भारत में रोजगार का संकट जारी रहा।
1991 का आर्थिक सुधार और नई चुनौतियाँ –
1991 में भारत ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG नीति) की दिशा में ऐतिहासिक कदम उठाया। इससे विदेशी निवेश बढ़ा, निजी कंपनियों को प्रोत्साहन मिला, परन्तु इसका लाभ केवल शहरी, शिक्षित वर्ग तक सीमित रह गया। संगठित क्षेत्र में नौकरियाँ सीमित रहीं, जबकि असंगठित क्षेत्र (informal sector) में रोजगार बढ़ा, जो कम वेतन और अस्थिर कार्य स्थितियों के लिए जाना जाता है।
2000 के बाद: IT क्रांति और स्टार्टअप्स का दौर –
सन् 2000 के बाद भारत में सूचना प्रौद्योगिकी (IT) और सेवा क्षेत्र ने तेज़ी पकड़ी। BPO, सॉफ्टवेयर, और डिजिटलीकरण ने लाखों युवाओं को नया रोजगार दिया। परंतु ग्रामीण भारत अब भी पारंपरिक कृषि और असंगठित कार्यों में उलझा रहा। 2010 के दशक में “स्टार्टअप इंडिया” और “उद्यमिता” को प्रोत्साहन मिला, परंतु व्यापक स्तर पर बेरोजगारी की दर में अपेक्षित गिरावट नहीं आई।
कोविड-19 का झटका जब बेरोजगारी चरम पर पहुँची –
2020 में आई कोविड-19 महामारी ने भारत के श्रम बाजार को गहरी चोट पहुंचाई। लॉकडाउन से उद्योग बंद हो गए, छोटे कारोबार ठप पड़ गए और लाखों मजदूर शहरों से गांव लौट आए।
प्रवासी श्रमिकों की यह पलायन कहानी भारतीय रोजगार तंत्र की असमानता को उजागर कर गई। हालाँकि सरकार ने राहत पैकेज, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, और रोजगार गारंटी जैसे उपाय किए, लेकिन महामारी ने दिखा दिया कि असंगठित क्षेत्र का कोई सामाजिक सुरक्षा कवच नहीं है।
सरकार के प्रमुख प्रयास और योजनाएँ –
भारत सरकार ने पिछले एक दशक में रोजगार सृजन के लिए अनेक योजनाएँ शुरू कीं –
1. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) – यह योजना ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार को 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित करती है।
2. प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY) – इस योजना के तहत युवाओं को उद्योग-विशिष्ट कौशल प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। अब तक लाखों युवाओं को इसका लाभ मिला है, जिससे वे रोजगार योग्य बन सके हैं।
3. मेक इन इंडिया अभियान – इसका उद्देश्य भारत को वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनाना है। इससे विदेशी निवेश बढ़ा और उत्पादन आधारित नौकरियाँ सृजित हुईं।
4. स्टार्टअप इंडिया और स्टैंडअप इंडिया योजनाएँ – इन योजनाओं ने युवाओं को स्वयं उद्यमी बनने के लिए प्रोत्साहित किया। सरकार ने टैक्स में छूट, फंडिंग सहायता और नवाचार को बढ़ावा दिया।
5. डिजिटल इंडिया अभियान – इस योजना ने IT, डिजिटल सेवाओं, ई-गवर्नेंस और डिजिटल भुगतान जैसे क्षेत्रों में नए अवसर बनाए।
6. प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम (PMEGP) – यह सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को प्रोत्साहन देता है, जिससे छोटे शहरों में भी रोजगार बढ़ा।
7. दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना (DDU-GKY) – यह ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण और रोजगार के अवसर प्रदान करती है, ताकि वे शहरों पर निर्भर न रहें।
रोजगार सृजन के उपाय, क्या किया जाना चाहिए –
1. शिक्षा प्रणाली में सुधार: शिक्षा को अधिक रोजगारोन्मुख बनाया जाए। स्कूलों और कॉलेजों में व्यावसायिक प्रशिक्षण और उद्योग से जुड़ी शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।
2. कौशल विकास पर बल: Skill India जैसे कार्यक्रमों को और अधिक व्यावहारिक बनाया जाए, ताकि युवा सीधे उद्योगों में काम करने योग्य बन सकें।
3. उद्यमिता को प्रोत्साहन: सरकार को ऋण वितरण और निवेश प्रक्रियाओं को सरल बनाना चाहिए। स्टार्टअप्स के लिए जोखिम निवेश (Venture Capital) तक पहुंच बढ़ानी चाहिए।
4. ग्रामीण विकास: कृषि-आधारित उद्योगों, डेयरी, मत्स्य और हस्तशिल्प जैसे क्षेत्रों में निवेश बढ़ाना चाहिए, ताकि गांवों में ही रोजगार सृजन हो।
5. तकनीकी नवाचार और अनुसंधान: नई तकनीकों, स्वच्छ ऊर्जा, और डिजिटल सेवाओं में अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिए, जो आने वाले दशक में लाखों नई नौकरियाँ उत्पन्न कर सकते हैं।
रोजगार सृजन ही आत्मनिर्भर भारत की कुंजी –
बेरोजगारी केवल आर्थिक असंतुलन नहीं है यह समाज के आत्मविश्वास और युवा शक्ति की परीक्षा है। भारत जैसे विशाल राष्ट्र में रोजगार सृजन केवल सरकार का दायित्व नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग की सामूहिक जिम्मेदारी है। सरकार ने “मेक इन इंडिया”, “डिजिटल इंडिया”, “स्टार्टअप इंडिया”, “PMKVY” जैसी योजनाओं के माध्यम से दिशा तो तय कर दी है, अब आवश्यक है कि इन योजनाओं को ज़मीनी स्तर पर सही क्रियान्वयन मिले। युवाओं को भी यह समझना होगा कि रोजगार केवल सरकारी नौकरी नहीं होता कौशल, उद्यमिता और नवाचार से वे स्वयं भी रोजगार सृजन के वाहक बन सकते हैं।
यदि शिक्षा, कौशल और नवाचार एक साथ आगे बढ़ते हैं, तो वह दिन दूर नहीं जब भारत में बेरोजगारी का नाम इतिहास की किताबों में रह जाएगा, और हर युवा अपने परिश्रम से आत्मनिर्भर भारत का सशक्त नागरिक बनेगा। रोजगार केवल जीविका नहीं, यह आत्म-सम्मान का प्रतीक है। जब हर हाथ को काम और हर दिल को अवसर मिलता है, तब ही सच्चे अर्थों में राष्ट्र प्रगति करता है।





