ऊटाला का रण: चुंडावत और शक्तावतों का अद्भुत बलिदान, एक ऐसा युद्ध जहाँ प्रथम मृत्यु ही सबसे बड़ा सम्मान थी।
Share your love

संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। राजस्थान की रेतीली धरती पर वीरता की कितनी ही कहानियां बिखरी पड़ी हैं, जो सदियों से युवाओं को प्रेरित करती आई हैं। इनमें से एक है मेवाड़ के ऊटाला गढ़ की वह घटना, जब 1600 ई. के आसपास महाराणा अमर सिंह के नेतृत्व में राजपूत योद्धाओं ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध न केवल दुर्ग जीता, बल्कि अपने ही साथियों के बीच ‘हरावल’ यानी युद्ध की अग्रिम पंक्ति के सम्मान के लिए प्राणों का दान दे दिया।
मेवाड़ का इतिहास वीरों का इतिहास है। 16वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर की महत्वाकांक्षी साम्राज्य-विस्तार नीति के दौर में मेवाड़ एकमात्र ऐसा राजपूत राज्य था, जिसने कभी अधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) ने हल्दीघाटी (1576 ई.) जैसे युद्धों से मुगलों को ललकारा, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी अमर सिंह ने इस विरासत को संभाला। जन्म 1559 ई. में चावंड में हुए अमर सिंह प्रताप के ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रताप की मृत्यु के समय मात्र 38 वर्षीय अमर सिंह ने मेवाड़ को मुगलों के चंगुल से मुक्त करने का संकल्प लिया।
अमर सिंह का शासनकाल (1597-1620 ई.) मुगल दबाव का चरम था। अकबर की मृत्यु (1605 ई.) के बाद जहांगीर ने मेवाड़ पर पुनः आक्रमण किया। अमर सिंह ने चित्तौड़, कुम्भलगढ़ और रणथंभौर जैसे दुर्गों के साथ-साथ छोटे-छोटे सीमांत किलों को लक्ष्य बनाया। ऊटाला इन्हीं में से एक था, उदयपुर से मात्र 39 किलोमीटर पूर्व, वर्तमान वल्लभनगर तहसील में स्थित यह दुर्ग मेवाड़ की पूर्वी सीमा की रक्षा करता था। मजबूत परकोटे से घिरा, बुर्जों और खाइयों से युक्त ऊटाला नदी के किनारे बसा था, जो इसे प्राकृतिक किले का रूप देता था। मुगलों ने इसे थानेदार कायम खां के हवाले किया था, जो जहांगीर का विश्वासपात्र था।
“वीर विनोद” के अनुसार, 1600 ई. के आसपास अमर सिंह ने ऊटाला पर चढ़ाई का निर्णय लिया। यह अभियान केवल सैन्य नहीं, बल्कि मनोबल-वर्धक था। मेवाड़ की सेना, जो प्रताप के समय से ही गुरिल्ला युद्ध में निपुण थी, ने गांव को घेर लिया। जमकर युद्ध हुआ, दोनों पक्षों से सैकड़ों योद्धा शहीद हुए। अमर सिंह ने स्वयं कायम खां को संभाल लिया और उसे मार गिराया। मुगल सेना भागकर गढ़ में शरणागत हो गई, द्वार बंद कर लिया। अब चुनौती थी, मजबूत किवाड़ तोड़ना।
यहां ये घटना एक नाटकीय मोड़ लेती है। मेवाड़ की सेना में ‘हरावल’ प्रथा प्राचीन काल से प्रचलित थी, यह वह सम्मानजनक पद था, जहां योद्धा युद्ध में सबसे आगे रहते, मृत्यु का पहला अवसर पाते। राजपूत समाज में हरावल को कुल-मर्यादा का प्रतीक माना जाता था। सदियों से यह अधिकार चुंडावत वंश के पास था। चुंडावत, सिसोदिया राजवंश की एक प्रमुख शाखा, मेवाड़ के राजतिलक में भी भूमिका निभाते थे, महाराणा का तिलक चुंडावत के रक्त से लगाया जाता था।
लेकिन शक्तावत वीर पीछे न थे। शक्तावत महाराणा शक्ति सिंह (प्रताप के अनुज) के वंशज थे। शक्ति सिंह ने प्रताप के साथ मतभेद के बाद भी मेवाड़ की सेवा की, और उनके पुत्रों भाणजी, अचलदास, बल्लू और दलपत ने शक्तावत शाखा को मजबूत किया। इनमें बल्लू सिंह शक्तावत विशेष पराक्रमी थे, शेर जैसी चाल, मरने-मारने को तत्पर। शक्तावतों ने अमर सिंह से हरावल का अधिकार मांगा, तर्क देते हुए कि त्याग और बहादुरी में वे चुंडावतों से कम नहीं। लेकिन चुंडावतों ने अस्वीकार कर दिया “जब तक हम जीवित हैं, हरावल हमारा अधिकार है।”
अमर सिंह दुविधा में पड़ गए। वे दोनों वंशों का सम्मान करते थे, चुंडावत परंपरा के रक्षक, शक्तावत नवीन शक्ति के प्रतीक। आंतरिक कलह मेवाड़ को कमजोर कर सकता था। उन्होंने एक अनोखा समाधान सुझाया: ऊटाला पर दोनों दल अलग-अलग दिशाओं से आक्रमण करें। जो दल पहले गढ़ में प्रवेश करेगा, उसे हरावल का स्थायी अधिकार मिलेगा। यह निर्णय दोनों पक्षों को स्वीकार्य लगा। शक्तावतों का नेतृत्व बल्लू सिंह ने संभाला, चुंडावतों का रावत जेत सिंह (सलूंबर) ने।
राजपूत सेना में हरावल अग्रिम दस्ता होता था, जो दुश्मन से प्रथम टकराव करता। यह केवल सैन्य भूमिका नहीं, बल्कि आध्यात्मिक था, मृत्यु को स्वीकारना शिव-भक्ति का प्रतीक। *Annals of Rajasthan* में टॉड इसे ‘क्षत्रिय धर्म का सार’ कहते हैं। आज भी राजस्थान की लोककथाओं में यह जीवित है।
शक्तावत दल मुख्य द्वार पर पहुंचा। किवाड़ लोहे के मजबूत शूलों से सजा था, कोई साधारण टक्कर सहने वाला नहीं। बल्लू सिंह ने अपने हाथी को आगे बढ़ाया, लेकिन मुकना (बिना दांत वाला) हाथी शूलों से सहम गया। तब बल्लू सिंह ने वह कदम उठाया, जो इतिहास में अमर हो गया। उन्होंने किवाड़ पर पीठ अड़ा ली, अपने शरीर को शूलों का सहारा बनाकर। “महावत! अब हाथी को मेरे बदन पर हुल दो!” उनकी लाल आंखें, क्रोधपूर्ण आवाज ने सबको स्तब्ध कर दिया।
महावत हिचका, स्वामी की मृत्यु का भय। लेकिन बल्लू सिंह ने ललकारा, “चुंडावत दीवार पर चढ़ रहे हैं! शक्तावत की आन-बान पर हाथी हुल!” भयभीत महावत ने अकुश मारा। हाथी ने चिगाड़ मारकर बल्लू सिंह की छाती पर जोरदार टक्कर दी। किवाड़ टुकड़े-टुकड़े हो गया। बल्लू सिंह के शरीर में शूल बिद्ध हो गए, वे वीरगति को प्राप्त हुए। लेकिन उनका बलिदान व्यर्थ न गया, शक्तावत सेना गढ़ में घुस पड़ी, मुगलों से भिड़ गई।
“वीर विनोद” में इस दृश्य का चित्रण भावुक है, “बल्लू सिंह का रक्त मातृभूमि का श्रृंगार बना।” यह घटना राजपूत साहित्य में ‘रक्त-वेदी’ का प्रतीक है। बल्लू सिंह अचलदास शक्तावत के छोटे भाई थे, जिनकी वीरता ने शक्तावत वंश को अमर कर दिया।
दूसरी ओर, चुंडावत दल दीवार पर चढ़ रहा था। रावत जेत सिंह, सलूंबर के योद्धा, युद्ध-कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी वीरता ऐसी कि ‘सूरमाओं के छक्के छूट जाते’। उन्होंने सीढ़ियां लगाईं, कंगूरों तक पहुंचे। लेकिन तभी मुगल बंदूकधारी की गोली उनके सीने में लगी। गिरते हुए वो चिल्लाए “मेरा सिर काटकर किले में फेंक दो! हरावल हमारा अधिकार है।” साथी हिचके, लेकिन जेत सिंह ने हुंकार भरी “मातृभूमि पर प्रथम बलिदान किसी को न दो! जल्दी करो।” एक साथी ने भरे मन से उनका सिर काटा और किले के अंदर फेंक दिया। यह सिर शक्तावतों से पहले पहुंचा तकनीकी रूप से चुंडावत विजयी हुए।
फिर चुंडावत सेना दीवार फांदकर अंदर घुसी, मुगलों को काटने लगी। घमासान युद्ध में सैकड़ों मुगल शहीद हुए। ऊटाला मुक्त हो गया, मेवाड़ का ध्वज फहराया। लेकिन विजय का श्रेय किसका? जेत सिंह का सिर पहले पहुंचा, हरावल चुंडावतों के पास रहा। फिर भी, बल्लू सिंह का द्वार-भेदन बिना सेना प्रवेश न कर पाती।
ये केवल दो वीरों की कहानी नहीं है, रावत तेज सिंह खंगारोत (अठाला) ने भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। खंगारोत वंश मेवाड़ के मजबूत स्तंभ थे। युद्ध में इनके अलावा अनेक योद्धा शहीद हुए, उनके नाम भले ही इतिहास के पन्नों में कम उभरें, लेकिन बलिदान सामूहिक था। अमर सिंह स्वयं रणभूमि पहुंचे, शहीदों की लाशें देखकर बोले: “मेवाड़ी धरा सदैव ऋणी रहेगी। हरावल का विवाद मिट गया, प्रश्न बलिदान का है, न कि अधिकार का।”
यह घटना केवल युद्ध की नहीं, बल्कि वंश-परंपरा, त्याग और मातृभूमि के प्रति निष्ठा की है। आज, जब राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक विरासत के मुद्दे फिर से उभर रहे हैं, ऊटाला की यह गाथा हमें सिखाती है कि सच्ची वीरता प्रतिस्पर्धा में नहीं, बलिदान में निहित होती है।
जेम्स टॉड की *Annals and Antiquities of Rajasthan* से लेकर कविराज श्यामलदास की “वीर विनोद” तक के स्रोतों पर आधारित यह कथा प्रमाणित इतिहास का हिस्सा है, जो मेवाड़ की स्वतंत्रता संग्राम को नई रोशनी में प्रस्तुत करती है।
ऊटाला की विजय अमर सिंह के अभियानों की कड़ी थी। इससे मेवाड़ का मनोबाल बढ़ा। 1615 ई. में अमर सिंह ने जहांगीर से संधि की, लेकिन बिना अधीनता के मेवाड़ का एकमात्र राजपूत राज्य जो ऐसा कर सका। ऊटाला ने साबित किया कि आंतरिक एकता ही विजय की कुंजी है। मुगलों के लिए यह हार शर्मनाक थी; “तुजुक-ए-जहांगीरी” में जहांगीर इसे ‘मेवाड़ी विद्रोह’ कहते हैं।
आज ऊटाला खंडहर है, लेकिन ASI के संरक्षण में। वल्लभनगर में पर्यटक इसे देख सकते हैं, नदी किनारे खड़ा परकोटा गाथा की गवाही देता है और लोक-साहित्य में ये जीवित है। राजस्थानी लोकगीतों में ‘बल्लू-जेत की वीरता’ गाई जाती है। 20वीं शताब्दी में नाटकों और उपन्यासों (जैसे ओमर खान की “मेवाड़ की वीरांगनाएं” ) में इसका चित्रण हुआ।
2025 में, जब भारत वैश्विक पटल पर उभर रहा है, ऊटाला सिखाता है कि एकता ही शक्ति है। अब राजस्थान सरकार ऊटाला को पर्यटन सर्किट में जोड़ रही है। इसके लिए उसने 2024 के बजट में 5 करोड़ का प्रावधान किया। युवाओं के लिए, यह कहानी स्टार्टअप कल्चर में ‘प्रथम स्थान’ की होड़ से ऊपर उठकर सामूहिक बलिदान सिखाती है।
क्या चुंडावत अधिक वीर थे या शक्तावत? अंतिम प्रश्न अनुत्तरित ही है, क्योंकि वीरता मापी नहीं जाती। बल्लू और जेत दोनों अमर हैं। जैसा अमर सिंह ने कहा “प्रश्न बलिदान का है।” भारत भूमि ऐसे वीरों से धन्य है।
ऐतिहासिक संदर्भ:
यह लेख मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह (शासनकाल: 1597-1620 ई.) के काल में ऊटाला (या ऊंटाला) गढ़ पर मुगलों के विरुद्ध अभियान और चुंडावत-शक्तावत सरदारों के बीच ‘हरावल’ (सेना की अग्रिम पंक्ति) के अधिकार को लेकर हुए बलिदान की घटना पर केंद्रित है। यह कथा राजपूताना इतिहास की एक प्रसिद्ध लोक-परंपरा है, जो वीरता, त्याग और वंश-परंपरा की मर्यादा को रेखांकित करती है।
महाराणा अमर सिंह महाराणा प्रताप (शासन: 1572-1597 ई.) के पुत्र थे। प्रताप की मृत्यु के बाद अमर सिंह ने मुगल सम्राट अकबर (शासन: 1556-1605 ई.) और उसके उत्तराधिकारी जहांगीर (शासन: 1605-1627 ई.) के विरुद्ध मेवाड़ की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष जारी रखा। यह सत्य है। रेफरेंस: जेम्स टॉड की पुस्तक *Annals and Antiquities of Rajasthan* (खंड 1, अध्याय 7, 1829-1832 ई.) में अमर सिंह के मुगलों से संघर्ष का विस्तृत वर्णन है, जहां वे मेवाड़ के दुर्गों को मुक्त कराने के प्रयासों का उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त, कविराज श्यामलदास की “वीर विनोद” (खंड 3, 1886 ई.) में अमर सिंह के अभियानों की पुष्टि मिलती है, जिसमें ऊटाला जैसे दुर्गों का जिक्र है।
ऊटाला (Untala Fort) मेवाड़ के ऐतिहासिक दुर्गों में से एक है, जो 16वीं-17वीं शताब्दी में रणनीतिक महत्व रखता था। रेफरेंस: राजस्थान राज्य अभिलेखागार (Rajasthan State Archives, Bikaner) के दस्तावेजों में ऊटाला को मेवाड़ के पूर्वी सीमांत दुर्ग के रूप में चिह्नित किया गया है। जी.एन. शर्मा की *Mewar and the Mughal Emperors* (1954 ई.) में इसका वर्णन मिलता है, जहां इसे मुगल थानेदार कायम खां (Qaim Khan) के अधीन बताया गया है। वर्तमान में यह वल्लभनगर तहसील में स्थित है, और पुरातत्व सर्वेक्षण ऑफ इंडिया (ASI) के रिकॉर्ड्स में इसकी संरचना (परकोटा, महल, खाई) की पुष्टि है।
1600 ई. के आसपास अमर सिंह द्वारा ऊटाला पर चढ़ाई, कायम खां का वध और मुगल सेना का पीछे हटना सत्यापित है। यह घटना अमर सिंह के मुगल-विरोधी अभियानों का हिस्सा थी। रेफरेंस: “वीर विनोद” (खंड 3, पृष्ठ 145-150) में विस्तृत वर्णन है, जहां अमर सिंह द्वारा कायम खां को व्यक्तिगत रूप से हराने का उल्लेख है। जहांगीर की आत्मकथा *तुजुक-ए-जहांगीरी* (1611 ई., अनुवाद: व्हीलर थैकस्टन, 1999 ई.) में भी मेवाड़ अभियानों के दौरान ऊटाला जैसे दुर्गों के नुकसान का संकेत मिलता है।
बल्लू सिंह का हाथी पर बलिदान (किवाड़ तोड़ने के लिए) और जेत सिंह का सिर कटवाकर फेंकना प्रसिद्ध कथाएं हैं। यह लोक-इतिहास की मजबूत परंपरा है, हालांकि कुछ विवरण किंवदंती से प्रभावित हैं। रेफरेंस: जेम्स टॉड (*Annals*, खंड 1, पृष्ठ 278-280) में हरावल प्रथा और चुंडावत-शक्तावत विवाद का उल्लेख है, जो महाराणा प्रताप के काल से चला आ रहा था। “वीर विनोद” (खंड 3, पृष्ठ 152-155) में ऊटाला घटना का विस्तार से वर्णन है, जिसमें बल्लू सिंह (बलू शक्तावत) और रावत जेत सिंह चुंडावत (सलूंबर) के बलिदानों की पुष्टि है। अन्य स्रोत: सी.एच. पेइंबरकर की “History of the Rajputs” (1926 ई.) और डी.आर. भंडारी की ” Mewar Glory” (2004 ई.), जहां इन वीरों को ‘प्रथम बलिदानी’ के रूप में सम्मानित किया गया है।

