हमारी जीवित सभ्यता का रहस्य वो महान वीर, जिन्होंने इतिहास नहीं अमरता लिखी।
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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। यदि हमारे पूर्वज केवल हारते रहे होते, तो हम आज यहां न होते। हम न हिंदू होते, न भारतीय संस्कृति के वाहक। हमारी परंपराएँ, संस्कार, भाषा, और धर्म सैकड़ों वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद भी जीवित हैं, जो यह सिद्ध करता है कि हमारे पूर्वज केवल योद्धा नहीं, बल्कि संरक्षक, निर्माता और पुनर्जीवक थे।
भारत पर यूनानी, शक, हूण, तुर्क, अफगान, मुगल, ब्रिटिश जैसे अनेकों विदेशी आक्रान्ताओं ने बार-बार आक्रमण किया लेकिन कोई भी भारत की आत्मा को जीत नहीं सका। यह वही आत्मा है जिसे अनगिनत वीरों ने अपने रक्त से सींचा जो आज भी हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखती है। भारत का इतिहास केवल “कब कौन हारा” की कथा नहीं, बल्कि “कब, किसने, किन परिस्थितियों में, कितनी बार पुनः खड़ा होकर अपनी भूमि, धर्म और संस्कृति की रक्षा की” इसकी गाथा है।
भारत के महान सपूतों ने सिंधु घाटी से लेकर मौर्य, गुप्त, चोल, राजपूत, मराठा और आधुनिक युग तक अपनी वीरता बुद्धिमत्ता एवं प्रशासनिक क्षमता का ध्वज लहराया है। चंद्रगुप्त मौर्य ने ग्रीक आक्रमणों को रोककर भारत को एकीकृत साम्राज्य में बदला, सम्राट अशोक कलिंग युद्ध के बाद शांति और धर्म के दूत बने, सम्राट स्कंदगुप्त हूणों को हराने वाले महान गुप्त सम्राट, जिन्होंने भारत को विदेशी आक्रमणों से बचाया। सम्राट समुद्रगुप्त ने उत्तर से दक्षिण तक विजय की पताका फहराई। राजा हर्षवर्धन ने शिक्षा, धर्म और शासन के संगम का प्रतीक बन चीन तक भारत कि धर्म ध्वजा फहराई। राजा भोज जिन्हें शास्त्र, शौर्य और संस्कृति के संगम के रूप में जाना जाता है ने मध्य भारत को सशक्त किया।
नरसिंहवर्मन प्रथम (चोल) जिन्होंने पल्लव साम्राज्य को दक्षिण भारत की गौरवगाथा बनाया। राजराज चोल जिन्होंने चोल साम्राज्य को समुद्रों के पार तक विस्तारित किया, श्रीलंका और मलय तक अधिकार किया। राजेंद्र चोल समुद्री विजय के महानायक, जिन्होंने “गंगा से लेकर दक्षिणी सागर” तक भारतीय प्रभाव फैलाया। ललितादित्य मुक्तपीड (काश्मीर) जिन्होंने तिब्बत और मध्य एशिया तक भारतीय ध्वज लहराया। और बप्पा रावल, नागभट्ट, मिहिरभोज, हम्मीर देव, सुहैलदेव, प्रथ्वीराज चौहान, राणा रतनसिंह, राणाप्रताप, अमर सिंह, दुर्गादास राठौर, शिवाजी, संभाजी जैसे सैकड़ों महावीरों ने अप्रतिम शौर्य दिखा कर भारत माता का मस्तक गर्व से ऊंचा कर दिया था।
लेकिन आजकल एक बहुत बड़ा नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है, कि हमारे देश की सीमाओं और संस्कृति के रक्षक राजपूत योद्धा केवल युद्ध हारने वाले नायक थे। इतिहास की पुस्तकों में अक्सर यही लिखा मिलता है कि राजपूत अलाउद्दीन खिलजी से हारे, बाबर से हारे, अकबर और औरंगज़ेब से हारे। परंतु क्या वास्तव में यही पूरी सच्चाई है?
हमारे समाज में कई राजपूत स्वयं भी इस भ्रांति के शिकार हैं। वे महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान या राणा सांगा जैसे वीरों को महान तो मानते हैं, लेकिन भीतर से उन्हें “हारा हुआ योद्धा” समझते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि हमें केवल वही इतिहास पढ़ाया गया, जिसमें हम पराजित दिखाए गए।
मेवाड़ के महाराणा सांगा ने सौ से अधिक युद्ध लड़े। वे केवल एक युद्ध खानवा में पराजित हुए, और इतिहासकारों ने उनकी पहचान उसी एक युद्ध से जोड़ दी। खंडार, अहमदनगर, बाड़ी, गागरोन, बयाना, ईडर और खातौली जैसे युद्धों में उन्होंने अद्भुत विजयें प्राप्त कीं। खातौली के युद्ध में वे अपना एक हाथ और एक पैर गंवाकर भी दिल्ली के इब्राहिम लोदी को खदेड़ने में सफल हुए। बयाना में बाबर की सेना को उन्होंने पीछे हटने पर मजबूर किया। लेकिन इतिहास के पन्नों में केवल खानवा की पराजय दर्ज है, न कि उन दर्जनों विजयों की गौरवगाथा।
पृथ्वीराज चौहान का नाम आते ही लोग “तराईन का दूसरा युद्ध” याद करते हैं, जिसमें मोहम्मद गौरी ने उन्हें हराया।
परंतु इससे पहले के उनके असंख्य युद्ध, जिनमें उन्होंने अपने साहस, रणनीति और वीरता से शत्रुओं को पराजित किया, इतिहास के अंधकार में खो गए। तराईन का पहला युद्ध, जिसने हिंदुस्तान को विदेशी सत्ता से कई वर्षों तक बचाए रखा, वह क्यों नहीं पढ़ाया जाता?
वैसे ही महाराणा प्रताप का नाम सुनते ही हल्दीघाटी का युद्ध स्मरण होता है, जो आज भी विवाद का विषय है। कुछ इतिहासकार इसे अनिर्णित कहते हैं, कुछ अकबर की जीत बताते हैं, जबकि कई प्रमाण अब यह सिद्ध करते हैं कि महाराणा प्रताप ने अंततः मेवाड़ का अधिकांश भाग पुनः प्राप्त कर लिया था।
महाराणा प्रताप ने केवल हल्दीघाटी ही नहीं, बल्कि गोगुन्दा, चावण्ड, मोही, मदारिया, कुम्भलगढ़, ईडर, मांडल और दिवेर जैसे 21 बड़े युद्ध जीते और 300 से अधिक मुगल छावनियों को ध्वस्त किया। उनके समय मेवाड़ में लगभग 50 दुर्ग थे, जिनमें अधिकांश पर मुगलों का अधिकार हो गया था। अकबर ने उनके नाम बदल दिए उदयपुर को “मुहम्मदाबाद” और चित्तौड़ को “अकबराबाद” कहा गया। लेकिन इतिहास यह नहीं बताता कि इन्हीं दुर्गों को महाराणा प्रताप ने पुनः अपने अधिकार में लिया और मेवाड़ को फिर से स्वतंत्र बनाया।
दिवेर के युद्ध में उनके पुत्र अमरसिंह ने अकबर के काका सुल्तान खां को भाले से भेद दिया था। यह विजय इतनी निर्णायक थी कि मुगल सेना वर्षों तक मेवाड़ की ओर देखने की हिम्मत न कर सकी। फिर भी इतिहास की किताबें केवल हल्दीघाटी पर समाप्त हो जाती हैं। महाराणा अमरसिंह ने जहांगीर से 17 युद्ध लड़े और 100 से अधिक मुगल चौकियों को ध्वस्त किया। लेकिन हमें केवल यह बताया जाता है कि 1615 ईस्वी में उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। पर 1597 से 1615 के बीच के अठारह वर्षों की वीरगाथा का कोई उल्लेख नहीं।
महाराणा कुम्भा को हम “विजय स्तंभ” और 32 दुर्गों के निर्माण के लिए जानते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 100 से अधिक युद्ध लड़े और कभी पराजित नहीं हुए। उन्होंने आबू, मांडलगढ़, गागरोन, मांडू, अजमेर, रणथम्भौर, नागौर, बूंदी, हाड़ौती आदि में अपराजेय विजयों की गाथा रची।
चित्तौड़ का नाम लेते ही तीन प्रमुख युद्ध याद आते हैं पहला अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रावल रतनसिंह की पराजय, दूसरा बहादुर शाह द्वारा राणा विक्रमादित्य के समय का युद्ध, तीसरा अकबर द्वारा महाराणा उदयसिंह पर आक्रमण। परंतु इन तीनों के अतिरिक्त चित्तौड़ पर अनेक बार आक्रमण हुए, जिनका वीरतापूर्वक प्रतिकार किया गया। चित्तौड़ का इतिहास केवल “जौहर” का इतिहास नहीं, बल्कि त्याग, प्रतिरोध और अमर शौर्य का इतिहास है।
भारत की सीमाएँ या उसके भूगोल की चौहद्दियाँ जितनी बार बदली हैं, वह हमेशा बाहरी आक्रमणों से नहीं, बल्कि भीतर की सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक परिस्थितियों के कारण बदली हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं, ये किसी विदेशी आक्रमण के कारण नहीं, बल्कि आंतरिक परिस्थितियों और वैचारिक भिन्नताओं के कारण अलग हुए।
इतिहास का पक्षपात और हमारी जिम्मेदारी
हमें वह इतिहास पढ़ाया गया जिसमें हमारे पूर्वज हारे हुए प्रतीत होते हैं। कभी कहा गया कि उन्होंने रणनीति में गलती की, कभी यह कि उनके हथियार कमजोर थे। परंतु जिन्होंने उन हथियारों से सैकड़ों वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों की तोपों का सामना किया, वे केवल हारने वाले योद्धा कैसे हो सकते हैं? उन वीरों ने अपनी मातृभूमि के लिए रक्त बहाया, अपने प्राण न्योछावर किए और आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वाभिमान की लौ जलाए रखी। अगर वे सचमुच हार गए होते, तो हम आज अपने धर्म, संस्कृति और परंपरा के साथ अस्तित्व में न होते।
इसलिए हम कह सकते हैं कि हमारे इतिहास की सच्चाई केवल “हार” की कहानी नहीं है, बल्कि संघर्ष, अस्तित्व और पुनरुत्थान की गाथा है। राजपूतों सहित इस देश के असंख्य वीरों ने अपनी भूमि और संस्कृति की रक्षा के लिए जो तप, बलिदान और पराक्रम दिखाया, वही आज हमें “भारत” के रूप में जीवित रखे हुए है। इतिहास को केवल पराजय के चश्मे से नहीं, बल्कि अमर शौर्य और अदम्य जिजीविषा के दृष्टिकोण से देखना ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी ,उन वीरों के प्रति, जिन्होंने अपने लहू से हमारी सभ्यता की रक्षा की।

