सांस चल रही है लेकिन जीवन खत्म! जानिए वो 14 दोष जो मनुष्य को जीवित होकर भी मृत बना देते हैं।
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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। भारतीय दर्शन और शास्त्रों में मानव जीवन को एक दुर्लभ अवसर माना गया है आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति का अवसर। किंतु जब मनुष्य अपने कर्म, विचार और व्यवहार से अधःपतन की ओर अग्रसर होता है, तब वह जीवित होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि से “मृत समान” हो जाता है। भारतीय संस्कृति में जीवन को केवल सांसों का चलना नहीं, बल्कि चेतना, विवेक और धर्म का सक्रिय रहना माना गया है।
गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस के लंकाकांड में एक गहन सन्देश दिया है ऐसे 14 प्रकार के लोग हैं जो सांस तो ले रहे हैं, परन्तु जीवन के असली अर्थ से मृत समान हैं। यह प्रसंग उस समय का है जब लंका दरबार में रावण और अंगद के बीच संवाद होता है। अंगद रावण को समझाते हैं कि अहंकार और दुर्गुणों में डूबा व्यक्ति चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः उसका पतन निश्चित है। वो कहते है कि –
जौं अस करौं तदपि न बड़ाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढ़ा। अति दरिद्र अजसी अति बूढ़ा॥1॥
सदा रोगबस संतत क्रोधी। विष्णु बिमुख श्रुति संत बिरोधी॥
तनु पोषक निंदक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥
तुलसीदास द्वारा बताए गए ये 14 दुर्गुण आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि ये मानव जीवन के नैतिक और आध्यात्मिक पतन के संकेतक हैं और आधुनिक भौतिकता ने इन्हें नए रूप में हमारे भीतर बसा दिया है।
आइए जानते हैं, कौन से हैं वे दुर्गुण जो मनुष्य को जीते जी मृत बना देते हैं –
1. कामवश — भोगों में लिप्त व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति इंद्रिय सुखों और भोगों में इतना डूब जाता है कि उसका विवेक नष्ट हो जाए, वह जीवित होते हुए भी मृत समान है।
आधुनिक व्याख्या: आज की भाषा में यह वही व्यक्ति है जो “हद से ज़्यादा कंज़्यूमरिज़्म” (consumerism) का शिकार है, सोशल मीडिया, फैशन, या शारीरिक आकर्षण के पीछे इतना उलझा कि उसे आत्म-संतोष और आंतरिक शांति का अर्थ ही नहीं पता। ऐसी कामवासना केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक लिप्सा भी हो सकती है, अधिक धन, शोहरत या त्वरित सुख की चाह। यह व्यक्ति बाहर से चमकदार पर भीतर से रिक्त होता है।
2. वाम मार्गी — समाज और सत्य के विरुद्ध चलने वाला
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति सदा नियमों, परंपराओं और मर्यादाओं के विरुद्ध चलता है, वह वाम मार्गी है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह वही मानसिकता है जो हर सामाजिक मूल्य को “पुराना” या “बकवास” कहकर खारिज करती है। जो हर चीज़ में नकारात्मकता खोजता है, चाहे वह धर्म हो, संस्कृति हो या पारिवारिक व्यवस्था। ऐसे लोग विद्रोही नहीं, बल्कि विनाशकारी होते हैं। समाज का सुधार ‘संवाद’ से होता है, ‘विरोध’ से नहीं।
3. कंजूस — दान और सेवा से दूर व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति दूसरों की भलाई में अपना कुछ भी योगदान नहीं देता, वह कंजूस कहलाता है।
आधुनिक व्याख्या: आज का कंजूस सिर्फ धन में नहीं, समय और संवेदना में भी कंजूस है। जो दूसरों की मदद करने, किसी को सुनने या सामाजिक सेवा करने में कंजूसी करता है, वह भी उसी श्रेणी में आता है। आत्मकेन्द्रित जीवन व्यक्ति को भीतर से खोखला कर देता है।
4. अति दरिद्र — आत्मबलहीन व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो धन, साहस और आत्म-सम्मान से हीन है, वह मृत समान है।
आधुनिक व्याख्या: यहां दरिद्रता केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक है। जो व्यक्ति आत्मविश्वास खो चुका है, जो अपनी क्षमता पर विश्वास नहीं रखता, वह भी दरिद्र है। आधुनिक समाज में यह “डिप्रेशन” या “इंफीरियरिटी कॉम्प्लेक्स” का रूप ले चुका है। ऐसे व्यक्ति को दुत्कार नहीं, सहानुभूति और प्रेरणा की आवश्यकता है।
5. विमूढ़ — विवेकहीन व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति अज्ञानवश दूसरों पर आश्रित रहता है और स्वयं सोचने की क्षमता खो देता है।
आधुनिक व्याख्या: आज के समय में यह वही व्यक्ति है जो बिना सोचे-समझे सोशल मीडिया या ट्रेंड्स के पीछे चलता है। जो “फॉरवर्ड” को सत्य और “रील्स” को ज्ञान समझ बैठता है। सूचना के युग में विवेक का नाश सबसे बड़ा पतन है।
6. अजसि — बदनाम व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जिसका समाज में सम्मान नहीं, वह जीवित होकर भी मृत समान है।
आधुनिक व्याख्या: आधुनिक जीवन में यह वह व्यक्ति है जो अपने कर्मों से भरोसा खो देता है, चाहे वह नेता हो, व्यापारी, शिक्षक या आम नागरिक। आज “प्रतिष्ठा” केवल पद से नहीं, आचरण से बनती है। एक बार नाम खराब हो जाए, तो जीवन का मूल्य घट जाता है।
7. सदा रोगवश — सदैव रोगी व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो हमेशा बीमार रहता है, वह जीवन के आनंद से वंचित रहता है।
आधुनिक व्याख्या: आज का युग लाइफस्टाइल डिजीज़ से ग्रसित है, मोटापा, तनाव, चिंता, ब्लड प्रेशर। शरीर का रोग अक्सर मन के असंतुलन से आता है। जो व्यक्ति अपने स्वास्थ्य की उपेक्षा करता है, वह धीरे-धीरे जीवन से विमुख हो जाता है।
8. अति बूढ़ा — असहाय वृद्धावस्था
शास्त्रीय अर्थ: अत्यधिक वृद्ध व्यक्ति जब दूसरों पर आश्रित हो जाए, तब वह मृत समान हो जाता है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह सामाजिक दृष्टि से एक गंभीर समस्या है। वृद्धाश्रमों में पड़े वे माता-पिता, जो अपने ही बच्चों से दूर कर दिए गए हैं, वे जीते जी मरे हुए हैं। आधुनिक समाज को ‘केयर’ नहीं, ‘स्नेह’ की आवश्यकता है।
9. संतत क्रोधी — हर समय क्रोध में रहने वाला
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति निरंतर क्रोध में रहता है, उसका विवेक नष्ट हो जाता है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह “एंगर डिसऑर्डर” या “फ्रस्ट्रेशन सिंड्रोम” का रूप ले चुका है। सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग, झगड़े, गाली-गलौज, ये सब उसी मानसिकता के लक्षण हैं। क्रोध मनुष्य की ऊर्जा को नष्ट करता है, और उसे भीतर से जला देता है।
10. अघ खानी — अधर्म से अर्जित धन का उपभोग करने वाला
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति पाप से कमाए धन से जीवन यापन करता है, वह मृत समान है।
आधुनिक व्याख्या: आज के संदर्भ में यह भ्रष्टाचार, बेईमानी, टैक्स चोरी, या किसी की मेहनत को हड़प लेने जैसा है। ऐसे धन से सुख कभी स्थायी नहीं होता। यह धन बाहर से चमकदार, पर भीतर से शापित होता है।
11. तनु पोषक — केवल अपने स्वार्थ के लिए जीने वाला
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति केवल स्वयं के सुख-साधन में लगा रहता है।
आधुनिक व्याख्या: आज के कॉरपोरेट या अर्बन कल्चर में यह प्रवृत्ति सर्वाधिक दिखती है “मैं पहले” की मानसिकता। यह व्यक्ति दूसरों की पीड़ा या पर्यावरण की चिंता नहीं करता। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति समाज के लिए अनुपयोगी और आध्यात्मिक रूप से मृत हैं।
12. निंदक — दूसरों की बुराई करने वाला
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति हर समय दूसरों की निंदा करता है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह प्रवृत्ति “ऑनलाइन ट्रोलिंग” के रूप में दिखती है। जो दूसरों की सफलता देख नहीं पाता, और सोशल मीडिया पर आलोचना में ही सुख खोजता है। निंदा मन को विषैला बना देती है, और व्यक्ति का आत्मविकास रोक देती है।
13. विष्णु विमुख — ईश्वर से विमुख व्यक्ति
शास्त्रीय अर्थ: जो व्यक्ति परमात्मा के अस्तित्व को नकारता है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह “आध्यात्मिक रिक्तता” के रूप में दिखता है। जो व्यक्ति विज्ञान या सफलता के अहंकार में डूबकर यह मान लेता है कि सब कुछ उसी के नियंत्रण में है। लेकिन जब संकट आता है, तो वही व्यक्ति सबसे पहले टूट जाता है। विश्वास जीवन की जड़ है; उससे विमुख होना आत्मा का ह्रास है।
14. संत और वेद विरोधी — धर्म और सत्य के शत्रु
शास्त्रीय अर्थ: जो संतों, शास्त्रों और वेदों का अपमान करता है, वह मृत समान है।
आधुनिक व्याख्या: आज यह मानसिकता “हास्य” या “फ्री स्पीच” के नाम पर धर्म, परंपरा और संस्कृति की अवमानना करने वालों में दिखती है। धर्म का विरोध आधुनिकता नहीं है; यह आत्मविनाश है। जो संस्कृति से कट जाता है, उसकी पहचान मिट जाती है।
श्रीरामचरितमानस का यह उपदेश केवल धार्मिक नहीं, बल्कि गहन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ रखता है। ये 14 दुर्गुण व्यक्ति की आत्मा, बुद्धि और चेतना को नष्ट कर देते हैं। जिस प्रकार शरीर के लिए प्राण आवश्यक हैं, उसी प्रकार मनुष्य के लिए धर्म, विवेक, करुणा और आस्था आवश्यक हैं।
जो व्यक्ति इन मूल्यों को खो देता है, वह चाहे सांस ले रहा हो, फिर भी जीते जी मृतक है। तुलसीदास का संदेश स्पष्ट है “जीवन केवल शरीर का नहीं, विचार और चरित्र का भी होता है।” इसलिए इन दुर्गुणों से दूर रहना ही सच्चे अर्थों में जीवन का उत्सव है।
अतः जीवित वही है जो विवेकवान है, जो करुणाशील है, जो दूसरों के सुख-दुख में सहभागी है, और जो अपने जीवन में धर्म और सत्य को जीवित रखता है। आधुनिक युग की भागदौड़, प्रतिस्पर्धा और तकनीकी चमक में मनुष्य कहीं न कहीं अपने भीतर की “जीवंतता” खो रहा है। तुलसीदास का यह संदेश हमें याद दिलाता है “जीवन सांसों से नहीं, संस्कारों से चलता है।”




