कन्यादान या उत्तरदायित्व सौंपना? हिंदू विवाह मंत्रों के वास्तविक अर्थ की पुनर्प्रस्तुति।
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संवाद 24 (संजीव सोमवंशी)। हाल के वर्षों में कुछ समूहों द्वारा यह तर्क दिया जाता रहा है कि “कन्यादान” शब्द स्त्री के वस्तुकरण का प्रतीक है, और यह प्रथा “पितृसत्तात्मक सोच” से उपजी है। लेकिन यदि हम वास्तव में वैदिक विवाह की मूल प्रक्रिया, मंत्रों और संस्कारों का अध्ययन करें, तो पाएँगे कि यह धारणा तथ्यों से बिल्कुल परे है।
विवाह के दौरान बोले जाने वाले संस्कृत मंत्रों में कहीं भी “दान” (दान देना) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। हिंदू विवाह परंपरा में “कन्यादान” कोई वैदिक शब्द नहीं, बल्कि लोक व्यवहार में विकसित हुआ एक सामान्य शब्द है। असल में, जो प्रक्रिया आज “कन्यादान” कहलाती है, उसका शास्त्रीय स्वरूप “उत्तरदायित्व-समर्पण” से जुड़ा है, अर्थात पिता अपनी पुत्री का संपूर्ण उत्तरदायित्व, उसके पालन-पोषण और संरक्षण की ज़िम्मेदारी, वर को सौंपते हैं।
वैदिक मंत्रों में ‘कन्यादान’ शब्द नहीं, केवल उत्तरदायित्व का भाव – विवाह के दौरान जो प्रमुख मंत्र उच्चारित किया जाता है, वह इस प्रकार है –
अद्येति….. नामाहं…… नाम्नीम् इमां कन्यां सुस्नातां यथाशक्ति अलंकृतां… प्रजापति दैवत्यां, शतगुणीकृत, ज्योतिष्टोम अतिरात्र शतफल प्राप्तिकामोऽहं नाम्ने, विष्णुरूपिणे वराय, भरण-पोषण-आच्छादन-पालनादीनां स्वकीय उत्तरदायित्वभारम् अखिलं अद्य तव पत्नीत्वेन तुभ्यं अहं सम्प्रददे॥
इस मंत्र का अर्थ स्पष्ट रूप से यह है कि “मैं अपनी कन्या को, जिसे मैंने अपनी शक्ति के अनुसार अलंकृत किया है, विष्णु स्वरूप वर को इस भाव से सौंपता हूँ कि अब उसका भरण-पोषण, सुरक्षा, और जीवन का उत्तरदायित्व तुम्हारा है।”
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि कहीं भी ‘दान’ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। यह न तो किसी वस्तु का दान है, न व्यक्ति का। यह मात्र जिम्मेदारी के हस्तांतरण का संस्कार है, जिसमें पिता अपने कर्तव्य की पूर्णता करते हुए वर को जीवनसाथी का उत्तरदायित्व सौंपते हैं। वर इसके प्रत्युत्तर में कहता है –
“ॐ स्वस्ति।” अर्थात “मैं इस उत्तरदायित्व को मंगल भाव से स्वीकार करता हूँ।”
लोक परंपरा में “कन्या के सौंपने” की क्रिया को “दान” शब्द से जोड़ दिया गया, क्योंकि भारतीय संस्कृति में “दान” सदैव “श्रेष्ठ त्याग” का प्रतीक रहा है। जिसे हम “कन्यादान” कहते हैं, उसमें कोई दान नहीं, बल्कि यह उस श्रेष्ठ उत्तरदायित्व का हस्तांतरण है, जो पिता से वर को मिलता है।
समस्या यह है कि आधुनिक काल में कई लोग वैदिक प्रक्रिया को पढ़े बिना केवल शब्द के सतही अर्थ से निष्कर्ष निकाल लेते हैं। परंपराओं को उनके भाव के बजाय भाषा के अक्षरों से आँका जाने लगा है।
कुछ बुद्धिजीवी (विशेष रूप से वामपंथी पृष्ठभूमि वाले) यह प्रश्न उठाते हैं, कन्या का उत्तरदायित्व वर को ही क्यों दिया जाता है? क्यों नहीं वर को कन्या अपने घर ले जाकर उसका उत्तरदायित्व निभाती? ऐसे तर्क सतही भावनाओं से प्रेरित होते हैं, न कि जीवन की व्यावहारिक सच्चाई से। मानव-जीवन की जैविक संरचना में माता के रूप में स्त्री को प्रकृति ने सबसे महान दायित्व संतान धारण, जन्म और पालन-पोषण का कार्य सौंपा है। बच्चे के पालन-पोषण की यह जिम्मेदारी किसी भी अन्य कार्य से बड़ी है। इसलिए शारीरिक रूप से वह संतानों के पालन में व्यस्त रहती है, जबकि परिवार के भरण-पोषण, सुरक्षा और संसाधन जुटाने की जिम्मेदारी पुरुष निभाता है।
इस प्रकार उत्तरदायित्व का विभाजन ‘श्रेष्ठता’ या ‘अधिकार’ नहीं, बल्कि ‘प्रकृति-सम्मत संतुलन’ का प्रतीक है।
भारतीय विवाह संस्कार केवल एक सामाजिक समझौता नहीं, बल्कि धार्मिक और वैदिक संस्कार है। इसमें प्रत्येक मंत्र का अर्थ गहन और जीवनोपयोगी है। नीचे कुछ प्रमुख मंत्रों का भावार्थ दिया जा रहा है
🪔 1. शुभारंभ मंत्र
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभः।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
अर्थात विशाल शरीर और वक्र सूँड़ वाले, मुखमंडल पर सहस्त्रों सूर्यों का तेज धारण करने वाले हे ईश्वर! मेरे सभी अच्छे कार्यों को सदा बाधामुक्त करना. हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले उसकी सफलता के लिए इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है।
🪔 2. संपूर्णता और संगति का मंत्र (अथर्ववेद)
इहेमाविन्द्र सं नुद चक्रवाकेव दम्पति।
प्रजयौनौ स्वस्तकौ विस्वमायुर्व्यअशनुताम्॥
अर्थात हे इंद्रदेव! इस जोड़े को चक्रवाक पक्षी की तरह सदा साथ और प्रसन्नचित रखें।
🪔 3. धर्म-अर्थ-काम की सहयात्रा का वचन
धर्मेच अर्थेच कामेच इमं नातिचरामि।
धर्मेच अर्थेच कामेच इमं नातिचरामि॥
अर्थात “मैं धर्म, अर्थ और काम के प्रत्येक मार्ग पर तुम्हारे साथ रहूँगा।” यह मंत्र वर और वधू दोनों द्वारा एक-दूसरे के लिए कहा जाता है।
🪔 4. हस्तग्रहण मंत्र
गृभ्णामि ते सुप्रजास्त्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः।
भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यांत्वादुः गार्हपत्याय देवाः॥
अर्थात “मैं तुम्हारा हाथ थामता हूँ इस कामना के साथ कि हमारी संतान यशस्वी और हमारा बंधन अटूट हो। भगवान इंद्र, वरूण और सावित्री के आशीर्वाद और तुम्हारे सहयोग से मैं एक आदर्श गृहस्थ बन सकूँ। वर को इस मंत्र का उच्चारण करना पड़ता है।
🪔 5. सप्तपदी मंत्र (सात कदम का प्रण)
सखा सप्तपदा भव, सखायौ सप्तपदा बभूव।
सख्यं ते गमेयम्, सख्यात् ते मायोषम् , सख्यान्मे मयोष्ठाः।
इस मंत्र का उच्चारण वर को करना पड़ता है, इसका अर्थ है ‘तुमने मेरे साथ मिलकर सात कदम चला है इसलिए मेरी मित्रता ग्रहण करो. हमने साथ-साथ सात कदम चले हैं इसलिए मुझे तुम्हारी मित्रता ग्रहण करने दो. मुझे अपनी मित्रता से अलग होने मत देना।
🪔 6. सहचरत्व का मंत्र
धैरहं पृथिवीत्वम् , रेतोअहं रेतोभृत्त्वम्, मनोअहमस्मि वाक्त्वम्।सामाहमस्मि ऋकृत्वम्, सा मां अनुव्रता भव।
अर्थात “मैं आकाश हूँ और तुम धरा, मैं उर्जा देता हूँ और तुम उसे ग्रहण करती है. मैं मस्तिष्क हूँ और तुम शब्द. मैं संगीत हूँ और तुम गायन. तुम और मैं एक-दूसरे का अनुसरण करते हैं।” यह वर के द्वारा उच्चारित किया जाता है।
🪔 7. सौभाग्य और स्थायित्व का मंत्र (ऋग्वेद)
गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्थासः।
भगो अर्यमा सविता पुरंधिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः॥
अर्थात “सविता और पुरंधि देवताओं के आशीर्वाद से मुझे तुम्हारे जैसी पत्नी प्राप्त हुई है। मैं तुम्हारे दीर्घ जीवन की कामना करता हूँ।”
विवाह के सात वचन आधुनिक युग में भी प्रासंगिक –
हिंदू विवाह का सबसे पवित्र भाग है “सप्तवचन” वह सात प्रतिज्ञाएँ जो वर और वधू अग्नि के सामने एक-दूसरे से करते हैं। प्रत्येक वचन वैवाहिक जीवन के किसी न किसी मूल मूल्य को दर्शाता है –
1️⃣ धर्म-सहचर्य: “तुम मेरे साथ हर धार्मिक कार्य में रहोगी।”
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।।
यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृत्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है। पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभागिता व महत्व को स्पष्ट किया गया है।
2️⃣ सम्मान और समानता: “मैं तुम्हारे और तुम्हारे माता-पिता का वही सम्मान करूँगा जो अपने का करता हूँ।”
पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम!!
कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
यहां इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हूए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
3️⃣ पालन और स्थायित्व: “मैं जीवन की हर अवस्था में तुम्हारा साथ और संरक्षण करूँगा।”
जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात।
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं।।
तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढ़ावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं।
4️⃣ उत्तरदायित्व और परिवार: “मैं परिवार की जिम्मेदारियाँ निष्ठा से निभाऊँगा।”
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ:।।
कन्या चौथा वचन ये मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं।
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए, जब वो अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
5️⃣ मंत्रणा और सहयोग: “मैं हर निर्णय में तुम्हारी राय का सम्मान करूँगा।”
स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या।।
इस वचन में कन्या कहती जो कहती है, वो आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करेंगे तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को रेखांकित करता है। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
6️⃣ संयम और मर्यादा: “मैं तुम्हारा अपमान नहीं करूँगा और किसी दुर्व्यसन में नहीं पड़ूँगा।”
न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम।।
कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूं, तब आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। और यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आपको दूर रखेंगे तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
7️⃣ निष्ठा और एकनिष्ठता: “मैं पराई स्त्रियों को माता के समान देखूँगा और केवल तुम्हारे प्रति समर्पित रहूँगा।”
परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमत्र कन्या।।
अंतिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।
ये वचन केवल धर्म नहीं, बल्कि आधुनिक वैवाहिक नैतिकता का भी आधार हैं।
आधुनिक भ्रम और सांस्कृतिक शिथिलता –
आज जब कुछ लोग “कन्यादान” शब्द के विरोध में “कन्यामान” जैसे विकल्प सुझाते हैं, तो इसका कारण केवल अज्ञान नहीं, बल्कि अपनी ही परंपराओं से दूरी है। हमारे पूर्वजों ने जो परंपराएँ बनाई थीं, वे गहन आध्यात्मिक चिंतन का परिणाम थीं। लेकिन आज की पीढ़ी, जो कॉन्वेंट शिक्षा और पश्चिमी विचारधारा में ढली है, उन्हें परंपरा के पीछे छिपे दर्शन की समझ नहीं है।
वामपंथी विचारधारा ने लंबे समय तक शिक्षा, मीडिया और मनोरंजन जगत पर वैचारिक प्रभाव रखकर भारतीय संस्कृति के मूल भाव को विकृत रूप में प्रस्तुत किया है। परिणामस्वरूप, “संस्कार” का स्थान “संदेह” ने ले लिया है।
परंपरा में तर्क है, आस्था में अर्थ है –
“कन्यादान” कोई वस्तु का दान नहीं, बल्कि उत्तरदायित्व और विश्वास का संकल्प है। यह वह क्षण है जब पिता अपनी पुत्री को किसी और के संरक्षण में नहीं, बल्कि जीवन-सहयोग में सौंपता है।
विवाह भारतीय संस्कृति में दो आत्माओं का संयोग ही नहीं, बल्कि दो परिवारों, दो उत्तरदायित्वों और दो संस्कारों का संगम है।
जब पिता “कन्या” को सौंपता है, तो वह केवल बेटी नहीं, अपनी जीवन-आस्था, संस्कार और विश्वास भी सौंप रहा होता है।
और यही भाव इस वैदिक मंत्र के पीछे है, उत्तरदायित्व, न कि दान। हमारी परंपराएँ अंधविश्वास नहीं, वे सदियों की बुद्धिमत्ता की संहिताएँ हैं। उन्हें बदलने से पहले समझना ही सच्चा प्रगतिवाद है।




